पृष्ठ:ठाकुर-ठसक.djvu/७३

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ठाकुर-उसक --- ४२ करिमंत्र जरूरौ गरूरोभलो बगरूरो उठो सो सम्हारने है ।१७४। छोडि पतिव्रत प्रीत करी निषही नहि थीण नुनी हम सोऊ। मौन भये रहनेई परो सहनेई परो जो कह कछु कोऊ । साची भई कहनावति वा कवि ठाकुर कान सुनी हती जोऊ। माया मिली नहिं राम मिले दुविधामें गये सजनीगनु दोऊ।१७॥ यह प्रेम कथा कहिबे की नहीं कहबोई,करी कोउमालत है। पुनि ऊपरी धीर धरायो चहै तन रोग नहीं पहचानत है। कहि ठाकुर जाहि लगो कसकै नहि सो कलकै उर आनत है। बिन आपने पायें बिवाई गये कोऊ पीर पराई न जानत है। भूलि न प्रीति करौं तुमलों कबहूँ नहि नैन को नैन मिलाऊं। बात करौं न सुनौं तुम्हरी अपने चित की कबहून चिताऊं। मोहि कहा परी प्यारे गोपाल जू लाज मरौं कुल कानि घटाऊं। ना विष खाउं न प्राण तजौं गुर खाउंन काहू सो कान छिदाऊ। जैसई लाल बड़े रिझवार हैं वैसई संग मिलो अनमोलो। चंद मुखी तजि राधे सी बामहिं कूचरी लोहित मानिकै बोलो। ठाकुर तो लौ कहा कहिये चुपके रहिये गहि के अनबोलो। आधरे साहब के घर में दमरी को हिसाव हजाराको जौलो वे सब जानती ती उनकों पर मापै परी यह डीठ तिरीछो। धैर सहो घरहाइन को अरु बानी सही कळु तीर तें तोछी ।। ठाकुर वे हरि छोडि गये व योही बक बकवादिन छीछी। ऊधो जू दोष तुम्हें न उन्हें हम लोन्ही है आपने हाथ ही बीछी। रोजही आनि हरावत बातन या ढिठई तुम्हें कौने सिखाई। देस्नि लई तुमरी करतूत सुबैठ रहो न करो चतुराई । ठाकुर धोखो हतो अबलों अब रावरे देख लई या बड़ाई। चोरी छिपाये कहाँ सो छिपे बड़याई भई कलई कढ़ि आई।।१८० । योही लुभानो पत्यानो लखे छवि देखि डरानो नहीं रँग कारे।