पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१०६

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साधन ८३ समा के संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि वह एक सहज भाव का विकार है। कृत्रिमता से उसका कोई नाता नहीं। प्राणिमात्र में जिसका विधान हो, पशु-पक्षि भी जिसमें निरत हों, आनंद का जिसमें उदय हो, सजीव नर-नारी मला उसकी उपेक्षा कैसे कर सकते हैं ? सूफियों का तो कहना ही है कि सारा नक्षत्रमंडल आकाश के रंग-मंच पर समा का संपादन कर रहा है। कण कण उसीके उल्लास में नाच रहा है। फिर हमारा उल्लास अपराध किस न्याय से ठहर मकता है ? वह तो व्यापक समा के सागर में सीकर के समान है किन्तु समा से अनर्थ भी कम नहीं होते । कुशेरी प्रभृति सूफी मीमांसकों का मत है कि समा से वृद्धों का हित और नवयुवकों का पतन होता है। समा के संपादन में हमें सदा सावधानी से काम लेना चाहिए नहीं तो किशोरों का जीवन नष्ट हो जाता सईद का पक्ष है कि उक्त धारणा ठीक नहीं । सत्य तो यह है कि समा से काम-वासना तृप्त हो जाती है। यदि समा में उछल-कूद, लपक- झपक आदि उपायों से उसका उपद्रव नष्ट न किया जाय तो वह एकत्र हो भयंकर उत्पात मचाती है । उसके प्रकोप में युवक पिस जाते हैं। समा के संबंध में संक्षेप में यह समझ लेना चाहिए कि जब जीव अाराधन में लीन होता है तब उसके घट के भीतर पाप-पुण्य का द्वन्द्व छिड़ जाता है और जीव विवश हो उसी में चक्कर काटने लगता है। लोग इसी को समा कहते हैं । अस्तु समा के सब अंगों पर विचार करने से विदित होता है कि यह एक प्रकार का संकीर्तन है। किसी मंडली 1 (?) "Dancing in order to arouse a «livine furore is not of course confined to the religions of the savages and of the Mohainmeans. Civilized Europe has had its dancing sects and new ones continues to appear now and again.'--The Psychology of Religious Mysticism, P. 7 15. (२) स्टडीज इन इसलामिक मिस्टीसीम पृ० ३४, नोट । " 29