पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१२७

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत का साक्षात्कार कराते तथा उस परम प्रेम का प्रदर्शन करते हैं जिसके अंशमात्र से सारी लीला चल रही है और जिसके दीदार के लिए सारी प्रकृति नाच रही है। अन्योक्ति की भाँति ही समासोक्ति भी प्रतीकों पर निर्भर रहती है। किंतु उसकी विशेषता यह है कि वह प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत दोनों को साथ लिये चलती है। कभी कभी सूफियों की वृत्ति इस ढंग की हो जाती है कि वे प्रतीकों के आधार पर किसी तथ्य का निदर्शन इस तरह कराना चाहते हैं कि उसका वृत्त भो यथातथ्य बना रहे और उनका अभीष्ट भी सघ जाय । परंतु इस प्रकार की दोहरी वेष्टा सूफी काव्य में अधिक नहीं मिलती । प्रायः उनकी मसन वियों में जो पाख्यान पाये जाते हैं उनमें से अधिकांश कल्पित हैं। उनका प्रधान उद्देश्य उनके द्वारा अपने मत का प्रकाशन करना ही है, कुछ उस पाख्यान को इतिहास का अंग बनाना नहीं ; प्रस्तुत तो उनके लिये निमित्तमात्र है । प्रचलित अथवा मूल वन्नु के वर्णन में भी सूफियों ने इतिवृत्त पर विशेष ध्यान नहीं दिया है प्रत्युत उसको रूपक एवं अन्योक्ति के साँचे में ढालकर उसे भावुक जनता के सामने अपने इस रंजित रूप में रख दिया है। यूसुफ और जुलेखा, लेला और मजनूं के रचयिता कभी उनके जीवन की व्याख्या में लीन नहीं होते, उनका ध्यान तो सदैव उनके उस उन्मत्त प्रेम के प्रदर्शन पर रहता है जो भावों के प्रबन प्रवाह में पड़कर भव-बंधन को तोड़ सर्वथा स्वच्छंद हो जाता है, किसी मार्ग की चिंता नहीं करता और मनमाना चल निकलता है। अस्तु, सूफियों की रचनाओं में समासोक्ति का चाहे जितना विधान हो और रूपक का चाहे जितना सत्कार हो, पर वस्तुतः सूफी अन्योक्ति के ही भक्त हैं। उनकी अन्योक्तियों में हृदय का दुराव है, अलौकिकता का स्वांग नहीं । अस्तु, हम देखते हैं कि प्रतीकों के आधार पर, छोटे छोटे श्राख्यानों के द्वारा, अन्योक्ति के रूप में सूफियों ने उन तथ्यों का मनोरम चित्रण किया जिनके संपादन में तर्क सर्वथा असमर्थ रह जाता है। मसनवी छंद श्राख्यानों के लिये इतना उपयोगी सिद्ध हुआ और उसमें इतने आख्यान लिखे भी गए कि उसका प्रयोग ही आख्यान के लिये होने लगा और लोग आख्यानात्मक रचना को मसनवी कहने लगे । आख्यानों से सूफियों ने अपने मत के प्रचार में वही काम लिया जो दृष्टांतों से