पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१२९

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत सूफियों ने उसको जन्म दिया । परन्तु गजल का अरबी में खूब प्रचार था। उसमें स्त्री-पुरुष की बात-चीत होती थी। धीरे-धीरे रति के साथ ही उसका क्षेत्र में व्यापक हो गया और उसमें परम-प्रेम का प्रदर्शन डट कर होने लगा। गजल के माशूक स्त्री से अमरद बनने लगे। भावों का सागर जितना गजल में उमड़ा उतना किसी अन्य छंद में नहीं। गजल में प्रेम की इतनी प्रचंड आंधी आई कि उसमें धर्म-कर्म, आचार-विचार सब हवा हो गए। प्रतीकों की ओट में खुलवुल और चमन से लेकर कब्र एवं कयामत तक आशिकों का इश्क छा गया । अमरदपरस्ती की धाक जमी और आशिक कब्र में से कफन फाड़-फाड़ कर माशूक को झाँकने लगे। गजल के प्रचार के बढ़ जाने के कारण 'अमरद की माँग बढ़ी और सूफी भी फकीरी तोड़ उसके पीछे हो लिए। जगह-जगह इश्क मजाजी का बाजार गरम हो गया । पर सच्चे सूफियों ने इश्क मजाजी को तपाया और तब तक उसके पीछे अड़े रहे जब तक वह इश्क हकीकी में परिणत न हो गया । आज भी समा में सूफी गजलों का ही गान करते हैं और कबाल उन्हीं को गाते गाते बहुतों के लिये हाल को आसान कर देते हैं । गजल में शराब और साकी, बुलबुल और चमन आदि प्रतीकों का ऐसा गुणगान होता है कि उनसे अनभिज्ञ प्राणी उनको अश्लील समझते और उनके रहस्य से अपरिचित रह जाने के कारण उनको कोसते भी हैं। इसमें तो संदह नहीं कि समाज की दृष्टि से गजल का प्रचार लोक-मंगल का विधायक नहीं । पर सूफियों को इस समाज की क्या पड़ी है ? उनको तो किसी प्रकार प्रियतम का समागम कर उसके साथ मौज करना अथवा उसके अभाव में उसका विरह जगाना है । इसके लिये उन्हें कोई कुछ भी कहता रहे पर उनको इसकी चिन्ता नहीं। हाँ, चिन्ता तो उन्हें तब होती है जब उनका कठोर साकी शराब ढालना बन्द कर देता है। शराब मिली तो चिन्ता क्या ? रुबाई में भी प्रतीकों को गजल की भाँति ही स्थान मिला। अंतर केवल यह रहा कि रुबाइयों का प्रसिद्ध निर्माता उमर खय्याम एक मौजी जीव था। वह अमरद- परस्त नहीं, रमशीपरस्त था। उसने रमणी को ही आलंबन बनाया, अमरद को नहीं । बस रुबाइयों में कर्मकांडों की धज्जियाँ उदाई गई। उनमें भी मुल्ला, काजी