पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१६४

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अध्यात्म १४७ अपनी प्रतीक-प्रणाली पर इसका आभास भर देते रहे और केवलादत की अपेक्षा विशिष्टाद्वैत की ओर ही अधिक मुड़ते रहे। अद्वैत के राज्य में द्वन्द्व नहीं रहता पर दुनिया में तो सुख दुःख, राग-द्वेष, पाप-पुण्य का पचड़ा है ही, तो फिर सुखद होते हुए भी अन्यथा करने की प्रेरणा हमें क्यों होती है ? जो हम दुःख भोगते हैं, ज्ञानी इसका कारण कुछ भी कहें पर इसलाम तो शैतान को ही सबका मूल मानता है। उसकी दृष्टि में उसीके जाल में पड़ कर जीव नाना प्रकार के जंजाल भोगता और दुःख-द्वन्द्व से मुक्त नहीं हो पाता है। अरबी की इस विषय की जिज्ञासा है-- "रब्ब भी हक्क है और अब्द भी हक्क है, काश मुझे मालूम हो जाय कि इनमें मुकल्लिफ ( कष्टदाता ) कौन है। अगर अब्द मुकल्लिक करार दिया जाय तो वह तो मुर्दा है। अगर रच मुकल्लिा है तो वह किस तरह मुकल्लिफ हो सकता है ?" अरबी के गूढ़ भावों की व्यंजना आसान नहीं । सूफियों के सामने शैतान का प्रश्न वेढब था। कुरान के कथनानुसार उसका एकमात्र अपराध यह था कि उसने अल्लाह की आज्ञा की उपेक्षा की और श्रादम का अभिवादन नहीं किया । फलतः अल्लाह ने उसको दंड दिया । उसका काम यह हो गया कि वह अल्लाह के बंदों को गुमराह करें और उन्हें कुमार्ग में लगाए । कुरान में यह भी कहा गया है कि श्राहाइ जिसको चाहता गुमराह करता और जिसको चाहता सत्पथ में लगाता है। यदि वह चाहता तो सबको सत्पथ पर लाता। सूफियों ने देखा कि इबलीस अल्लाह का समकक्ष बागी तो हो नहीं सकता। जब अल्लाह अपनी इच्छा से किसी को गुमराह करता है तब इसका दोष शैतान के सिर क्यों मढ़ा गया? अल्लाह की आज्ञा का पालन इबलीस नहीं कर सका तो इसका कारण अल्लाह की इच्छा ही है। क्योंकि अल्लाह खयं चाहता है कि कोई ऐसी भी सत्ता हो जो भक्तों को प्रेम की खरी कसौटी पर कसे और उनमें से (१) तारीख फलासिफ़तुल इसलाम, पृ० ४०६ ।