पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

साहित्य नुसलमानों के उपद्रव से तंग आकर जो पारसी भारत में आए उनके लिए अपने प्राण ही भारी थे; उन पर अन्य पुस्तकों का बोझ कहाँ तक लादा जा सकता था? फिर भी उन्होंने उन ग्रंथों की रक्षा की जो कर्मकांड के विधायक थे । उनमें कविता की मलक कहाँ तक अपना राज्य दिखाती है इसका कुछ पता दीनशाह ईरानी की 'सखुनवरान दौरान पहलवी' की भूमिका से चल जाता है, और उससे यह भी प्रकट हो जाता है कि किस प्रकार ईरान की वाराही का अरबों के द्वारा सर्वनाश हुश्रा हाँ, तो हमारा कहना है कि 'अजम' में इसलाम के पहले भी कविता होती थी। उसके न मिलने का प्रधान कारण इसलाम की संकीर्णता है। मुसलमानों ने एक और जब पुस्तकों को जला दिया और दूसरी ओर जब इंसान को कुरान के भीतर घेर दिया तब फिर कविता के लिये मुक्त क्षेत्र कहाँ रहा ? अरबी कुरान की भाषा थी। इसलाम की वही पाक जबान थी। उसीमें कुरान, हदीस, सुन्ना आदि का चयन हो रहा था । अतः पहलवी को छोड़ कर अरबी की पैरवी करना ही मजहब की पुकार थी। ईरानी भी अरबी में ही लिखे, यही विधान था। एक कटर अरबी खलीफ़ा को तो यहाँ तक आश्चर्य है कि ईरानी इतने वर्षों तक राज्य करते रहे पर उन्हें कभी अरबों की आवश्यकता न पड़ी, किंतु शती मात्र के शासन में अरबों को उनकी सहायता अनिवार्थ हो गई । बात यह है कि ईरान को समय के साथ चलने की टेव है। उसमें तिनके की ऐंठ नहीं वेतस की वृत्ति है । इसीसे झुककर उसने इसलाम को अपनी मुट्टी में कर लिया। जब तक विवश था, अरबी का भक्त बना रहा, पर अवसर पाते ही सचेत हुआ और ईरानी का पल्ला पकड़ फिरदौसी' जैसे प्रौढ़ राष्ट्र कवि को जन्म दिया, जिसे अरबी शब्द तक से चिढ़ थी और जो अरबी की अवहेलना करते हुए भी शाहनामा सा विश्व विख्यात ग्रंथ रच सका। कहा जाता है कि शाहनामा को प्रस्तुत करने में फिरदौसी को उन'वृत्तों से प्रयाग में जला दो। फलत: मुसलमानों ने उस समय किया भी यहो। इसके लिए देखिए 'सखुनवरान दौराने पहलवी, पृष्ठ ५७, ५८ । (१) उमर खय्याम एड दिन एज, भूमिका पृ० १८ । (२) पार्शियन लिटरेचर, पृ० १४ ।