पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/१९९

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१८२ तसव्वुफ अथवा सूफीमत दिखाई पड़ता है वह भी शीघ्र ही बिदा होनेवाला है। इसमें तो सन्देह नहीं कि तुर्कों ने परदा और टोपी को हटा कर जो हैट अपनाई है उससे स्पष्ट हो जाता है कि उनका दिमाग अब इसलामी नहीं रहा। फिर भी कुछ मुसलिम यहाँ तक कि हमारे डाक्टर इकबाले से मनीषी भी उनके इन कृत्यों का प्रतिपादन करते और कमालपाशा को मुजतहिद समझते हैं। उनकी धारणा है कि इसलाम के मंगल के लिये इजतिहाद आवश्यक है । तुर्की की इस नीति से इसलाम चमक उठेगा । मुस्तफा कमाल पाशा वस्तुतः तुर्कों का विधाता है । उसको नीतिपटुता से संसार परिचित है। नीति की प्रेरणा से उसने अरची और फारसी का निषेध कर तुर्की भाषा और रोमी लिपि का विधान किया। अब अंगोरा का भाग्य किसी खली के अधीन नहीं रहा । नहीं, वह तो 'गाजी मुस्तफा कमाल, नहीं नहीं 'अतातुर्क' के अनुयायियों की भावभंगी पर निर्भर हो गया। अब तुर्क मजहबी बखेड़ों से बरी हो गए हैं। तुर्की उत्कर्ष के लिये उनको कुरान के मग्ज की भी जरूरत नहीं है । वह तो मौलाना रूमी के लास्य के लिये ही उपयोगी था। तुर्क तांडव चाहते हैं, उन्हें लास्य से सन्तोष नहीं। मतलब यह कि जहां से खिलाफत का नाम मिट गया, जहाँ से कुरान का अरबी पाठ उठ सा गया, जहाँ 'रोजा-नमाज का नाम ही शेष रहा, जहाँ अरबी-फारसी का अध्या- पन अपराध समझा गया वहां तसव्वुफ की बात बेकार है। हम यह जानते हैं कि सूफी इश्क के बंदे होते हैं किसी मजहब के पाबन्द नहीं ; पर हम यह भी देखते हैं कि फकीर खुदा-परस्त होते हैं, मुल्क-परस्त नहीं । तुर्क मुल्कपरस्त हो गए हैं उन्हें इश्क हकीकी की चिंता नहीं । कमालपाशा की आज्ञा से खानकाहों और मजारों के द्वार बंद हो गए हैं, उनमें प्रविष्ट होने का अधिकार नहीं । जिक्र की यह दशा है कि कोई उसे अकेला भी नहीं कर सकता। समुदाय की तो बात ही अलग है । गाजे-बाजे के साथ सलात का पालन तुर्क कर लेते हैं। बस उनके लिये इतना ही इसलाम बहुत है (१) सिक्स लेक्चर्ज, १० २२० । (२) तुर्की में मशरिक व मगरिब को कशमकश, दीवाचा, पृ० १२ ! (३) खादर इलसाम, पृ० १६७ । ।