पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/३०

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अक्षरशः सत्य था । उनके फकड़पन में पूरी सहायता मिलती है। जिन नबियों के संबंध में हम विचार कर रहे हैं उनकी भी गुह्य मंडली की दृष्टि में "पृथिव्यां यानि कर्माणि जिहोपस्थनिमित्ततः । जिद्दोपस्थपरित्यागी कर्मणां किं करिष्यति । उपस्थ में जिस रति और आनंद का विधान है उसका निदर्शन हम पहले ही कर चुके हैं। जिला के संबंध में यहाँ इतना जान लेना पर्याप्त है कि उक्त मंडली सुरापान खूब करती थी। जब मुरा का रंग जमता था तब लोग नाना प्रकार की उछल-कूद, लपक-झपक और भक-झक में मग्न हो जाते थे और नाच-गान में इतनी तत्परता दिखाते थे कि उग्र उपद्रवों के कारण उनको मूर्छा था जाती थी। फिर क्या था, उनके सिर पर देवता आ जाता था और वे इलहाम की घोषणा करने लगते थे। नाच-गान की प्रथा बहुत पुरानी है। जीवमात्र में उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है सूफियों के 'समाअ' और तजनित 'हाल' का प्रचार नवियों की उक्त गुह्य-मंडली में भी अच्छी तरह था, भावावेश के परिणाम कभी कभी अनर्थकारी भी होते हैं। उक्त नवियों में कतिपय ऐसे भी थे जो अपने शरीर पर घाव करते थे और जनता पर प्रकट करते थे कि उन अाघातों से उन्हें तनिक भी कष्ट नहीं होता ; क्योंकि उन पर देवता की असीम कृपा है और उसके विज्ञापन के लिए ही वे वैसा किया करते हैं । आगे चलकर सूफियों ने प्रियतम के घाव को जो फूल समझ लिया उसका मुख्य कारण यही है । घाव तो उसे लोग तब समझते जब उन पर देवता सवार न होता। देवता के प्रसाद को फूल समझना हो उचित था। हिंदी कवि विहारी ने भी सूफियों की देखादेखी 'सरसई' को कभी सूखने नहीं दिया, खोट खोंटकर उसे बराबर हरा ही रहने दिया ; क्योंकि उनकी नायिका को वह क्षत उसके प्रियतम से प्रसाद के रूप में मिला था जो उसके प्रेम को सदा हरा-भरा रखता था । 1 (१) कुलार्णव तंत्रम् , नवम उल्लास, १३३ । (२)हूसी ७.१४; ए हि० आव हे० सिविलीजेशन, पृ. १..।