पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/३३

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तसव्वुफ अथवा सूफीमत मानव-हृदय जिसकी आराधना करता है उससे सहसा अलग नहीं हो पाता । वह उसकी सारी चीजों का ध्यान रखता है। पीर-परस्ती या समाधि-पूजा का यही रहस्य है। शामी जातियों में पादप-पूजा भी प्रचलित थी। सीरिया में आज तक उसकी प्रतिष्ठा है। अस्तु, सूफियों की समाधि-पूजा परंपरागत है। वे अाज भी पीर की समाधि को हज समझते हैं। सूफीमत में 'जिक' की बड़ी प्रतिष्ठा है। जिक्र की पद्धति-विशेष के संबंध में यह स्मरण रखना चाहिए कि उसके स्वरूप में देशकाल के अनुकूल परिवर्तन होता रहता है। उक्त नबियों में जिक्र का क्या स्थान था, यह हम ठीक ठीक नहीं कह सकते, परंतु इतना जानते अवश्य हैं कि उनमें उपवास और मुद्रा-विशेष का प्रचलन था। इलियाहे यहोबा की आराधनामें घंटों घुटनों के बीच सिर दवाए एड़ा रहता था । प्रतीत होता है कि इलियाह के पहले भी कतिपय योग-मुद्राओं का प्रचार था और नबी उनके अभ्यास में लगे रहते थे। उक्त नबियों के विषय में अब तक जो कुछ निवेदन किया गया है उसका सारांश यह है कि यहोवा की प्रतिष्टा से प्रथम ही इबानी जाति में जो गुह्य-मंडली थी उसमें उल्लास का पूरा विधान था। उल्लास के संपादन के लिए मादक द्रव्यों, विशेषतः सुरा का सेवन किया जाता था। सुरा के प्रभाव से जो आनंद उत्पन्न होता था वह तो था ही; संगीत के आवेश में जो अभिनय, उछल-कूद, लपक-झपक बक-झक आदि उपद्रव होते थे उनसे उल्लास का रंग और भी चोखा हो जाता था और उसी को लोग देवता का प्रसाद समझने लग जाते थे। नाट्यों की अधिकता एवं भावों के प्रबल उद्रेक के कारण नबियों को मूर्छा प्रा जाती थी। इस दशा में जो कुछ उनके मुँह से निकल पड़ता था वही इलहाम होता था। उनकी चेतना देवता को चेतना समझी जाती थी। आज भी बहुत सी अशिक्षित जातियों में इस हाल और इलहाम का दर्शन हो जाता है और हम उनके पात्रों को 'दरसनियों' के रूप में प्रतिष्ठित पाते हैं। (१) राजाओं की पहली पुस्तक, १८.४२