पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/६२

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परिपाक इसका दुःख न रहा । भविष्य की विभूति ने उसे धोर संताप से विमुख कर दिया । वह परम प्रेम में मत्त रही। मादन-भाव के जिस विभव का दर्शन राबिया तथा उसकी मखियों में मिला उसका मूल-स्रोत वस्तुतः वासनात्मक है। 'धर्मपुस्तक" में जिस वेदना का विधान किया गया था उसका विमल विलास राबिया मे हुआ। परंतु उसके निरूपण का जो श्रम अफलातून तथा प्लोटिनस प्रभृति यूनानी पंडितों ने किया था उसकी प्रतिष्ठा अभी इसलाम में न हो सकी। इसलाम में प्रेम का प्रतिपादन नवीन पद्धति पर करना परम आवश्यक प्रतीत होने लगा। शासको के भोग-विलास से प्रेम को प्रोत्साहन मिला। उसका कल निनाद परिस्फुट हुआ। उम्मैया-वंश के बादल को विच्छिन्न कर ईरान का सितारा चमका। अब्बामियों के शासन मे ईरान को जो प्रतिष्ठा मिली उसका इसलाम पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि पद पद में इसी की आभा फुटने लगी। संस्कृति की दृष्टि से अरब ईरान के विजयो मृत्य बन गए । उनको अध्यात्म का गूढ़ विवेचन नहीं भाता था, पर किमी मत में मीन-मेष कर लेना वे जानते थे । ईरान के संपर्क में तो अरब बहुत पहले से थे, अब उसके बीच में बसकर उसे इसलाम की दीक्षा देने लगे थे। उनका एकमात्र धार्मिक अस्त्र कुरान था। हदीस का उपयोग भी कर लिया जाता था। ईरान काफी बुद्धि-वैभव देख चुका था। अब्बासियों की कृपा से बगदाद विद्या का केंद्र बन गया। न जाने कितने ग्रंथों के अनुवाद अरबी में किए गए । यूनान तथा भारत के मनीषी मर्मज्ञ बगदाद में आमंत्रित हुए । बरामका पहले बौद्ध थे। उनके मंत्रित्व में बगदाद ने जो विद्या- प्रचार किया वह इसलाम की नस नस में भिन गया। अनूदित ग्रंथों एवं अन्य विद्या व्यापारों का विवरण न दे हम यहाँ इतना कह देना बहुत समझते हैं कि यह इसलाम का स्वर्णयुग था। इसमें भिन्न भिन्न मतों, दर्शनों, कलाओं, विचारों आदि का विनिमय व्यापक रूप से हो रहा था; बुद्धि-व्यायाम परितः चल रहा था और (१)यूएल, १-८॥ (२) अरब और भारत के संबंध, पृ० ९४ ।