पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/७६

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४. आस्था प्रेम के मद में चूर सूफियों की आस्था का पता लगाना सहज नहीं, एक अत्यंत दुस्तर कार्य है। प्रेम-प्रवाह किसी पद्धति विशेष का अनुसरर नहीं करता । उसकी उन्मुक्त धारा में जो कुछ पड़ता वह भी स्वच्छंद हो जाता है। सूफियों ने इधर उधर से खींच कर प्रेम का जो रस-संचार किया उससे सारी बातें; समस्त प्रास्थाएँ उच्छिन्न होकर भीतर से इसलाम का उन्मादन करती रहीं। सूफियों को इसलाम की क्रूरता के कारण जिस वेतसी वृत्ति का आश्रय लेना पड़ा, जिस मार्ग का अनु- सरमा करना पड़ा और जिस प्रकार अपने प्रेम में अग्रसर होना पड़ा उसके परिशीलन सं स्पष्ट अवगत होता है कि उनके मत के व्यक्तीकरण में इसलाम की सर्वत्र धाक है। जहाँ कहीं उनकी प्रवृत्ति उसकी पद्धति की अवहेलना करती है वहाँ भी उनमें इसलाम की ममता स्पष्ट गोचर होती है। कर्म भावों का साथ देने में सदा असमर्थ रहा है ; उसको परिस्थिति एवं परिणाम का ध्यान रखना ही पड़ता है। लोगों की दृष्टि भी कर्म पर ही अधिक पड़ती है। भावों और प्राशयों पर विचार करने का उन्हें अवसर कहाँ ? निदान, सूफियों को संस्कारवश, संयोगवश, मंगल- कामना अथवा आत्मरक्षा के लिए इसलाम का समादर, ईमान का स्वागत एवं दीन का उद्बोधन इसलामी ढंग पर करना ही पड़ा। अपने मत का प्रकाशन, प्रेम का निदर्शन, संवेदन का निरूपण मुहम्मदी मत के आधार पर करने से ही सूफी जीते- जागते, बिरह जगाते सानंद विचरते रहे । उनके काव्य, साहित्य, अभ्यास आदि सभी व्यापारों में इसलाम का आतंक काम करता रहा । जिदीक संघ में भी अनेक सूफी सालिकों की भांति इसलाम की देख-रेख में लगे रहते थे और उनका प्रतिपादन भी जी खोलकर कर दिया करते थे । अतएव सूफियों की आस्था का प्रतिपादन संगत ही नहीं समीचीन भी है। आस्था होती भी अत्यन्त बल- वती है। ज्ञानी-विज्ञानी अथवा परमहंस भी उसकी लपेट में आ ही जाते हैं