पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/९३

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ससबुक अथवा सूफीमत है, पर उसका होना न होने के बराबर है । निदान, सूफियों की आस्था मुसलिम ईमान का साथ नहीं छोड़ती, हाँ, उसको कुछ प्रांजल अवश्य कर देती है। आस्था के प्रसंग को समाप्त करते-करते सूफियां की उन बातों पर भी ध्यान चला गया जिनको अाजकल का सभ्य समाज अंध-विश्वास वा ढकोसला के नाम से पुकारता है । यद्यपि सूफियों की आस्था के विषय में अब तक जो कुछ ऊपर निवेदन किया गया है उसमें उक्त दृष्टि से अंध-विश्वास की कमी नहीं तथापि उसको इसलाम का धार्मिक बल प्राप्त है ; उसकी उपेक्षा कुफ्र अथवा पाप है। आस्था के मंबंध में यह स्मरण रखना चाहिए कि तर्क उसका शत्रु होता है ; उससे उसकी निभ नहीं सकती। बुद्धि के सहारे पर चलनेवाले व्यक्तियों की प्रास्था कभी दृढ़ नहीं होती, और मानव-हृदय को शान्त रखने के लिये वह पूरी भी नहीं पड़ती। अतएव विज्ञानियों के घोर विरोध करने पर भी तंत्र-मंत्र, पूजा-पाठ सदैव दुखियों के नाथ रहे हैं। शकुन, नजूम, ताबीज, तबलंक आदि की अाज भी मानव-समाज में पूरी पूछ है और फकीर झाड़-फूंक में बराबर लगे भी रहते हैं। कीमिया से उनको बड़ी मदद मिलती है। करामत का बहुत कुछ श्रेय कीमिया पर ही निर्भर है। फिर भला कोई लोकप्रिय जीव उसको छोड़ कैसे सकता है ? फलतः सूफी पके कीमियागर भी होते हैं और करामत के द्वारा ही जनता पर अपना रंग जमाते हैं। परंतु सच्चे सूफी इस प्रपंच से सदा दूर ही रहते । इससे उन्हें कभी कुछ लेना देना नहीं रहता।