पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

७८ तसबुफ अथवा सूफीमत साधनों के विश्लेषण से व्यक्त होता है कि इनमें अभ्यंतर के परिष्कार की चिता तो है, पर अल्लाह के साक्षात्कार का समुचित समावेश इनमें नहीं है। सूफियों ने अपनी तथा अपनी अंतरात्मा की पुकार की रक्षा के लिये जिस प्रासाद को खड़ा किया उसके द्वार पर इसलामी चिन्ह तो अवश्य हैं ; पर उसका अंतःपुर सर्वथा स्वच्छन्द है। अंतःपुर के प्रेम-प्रमोद का परिचय अन्यत्र दिया जायगा । यहाँ हमको उस उपकरण पर विचार करना है जिसका उपयोग प्रियतम के साक्षात्कार के लिये किया जाता है; और उन साधनों को भी देख लेना है जो इसलाम के स्तंभ कहे जाते हैं। तसव्वुफ के साधनों का इसलाम के स्तंभों पर विचार करने के पहले ही ग्रह जान लेना अत्यन्त सुगम होगा कि इसलाम की दृष्टि सदा से संघ-निर्माण या संघटन पर रही है । इसलाम समष्टि में व्यष्टि को, समाज में व्यक्ति को बाँधता हुआ एवं अपना प्रसार करता हुअा बराबर चला आ रहा है। मुहम्मद साहब को इसमाईल की संतानों की बड़ी चिंता थी तो अरबों के उत्कर्ष के लिये संघटन अनि. वार्य था। परंतु उन्होंने अल्लाह की प्रेरणा से जिस इसलाम का प्रचार किया, प्रारंभ में अरबों ने ही उसका घोर विरोध किया और फलतः मुहम्मद साहब को भागकर मदीना जाना पड़ा । मुहम्मद साहब ने देख लिया कि इसलाम के प्रचार के लिये संग्राम आवश्यक है और संग्राम के लिये संघटन अनिवार्य है। निदान मुहम्मद साहब संघटन के कारण विजयी हुए और उनका मुसलिम संघ भी स्थापित हो गया। उसने जेहाद में सफलता प्राप्त की। फिर क्या था, इसलाम में सलात, जकात, सौम और हज की प्रतिष्ठा हुई। परंतु जैसा पहले कहा जा चुका है, हृदय को ऐसे परम हृदय की और व्यक्ति को ऐसे परम व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती है, जिसके संसर्ग में वह यहाँ तक आना चाहता है कि उसको किसी प्रकार का भी मध्यस्थ खलने लगता है । उस समय उसकी दृष्टि में प्रियतम, सृष्टि में प्रियतम, कण-कण में प्रियतम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रह जाता। उसकी प्रवृत्ति संघ, समाज आदि सभी संस्थाओं की उपेक्षा कर स्वच्छंद रूप से प्रियतम की ओर मुड़ती और उसीमें एकांत भाव से रम जाती है। अब उसको किसी संघ या