पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/९७

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<a तसव्वुफ अथवा सूफामत प्रमाण कम और उसके स्पष्टीकरण में व्याख्यान अधिक दिए जाते हैं। कर्मकांडों के प्रतिपादन में बुद्धि का अपव्यय प्रायः सर्वत्र और सदैव किया गया है, इसलाम इसका अपवाद नहीं । वह तो सर्वथा इसका पात्र ही है। यदि काबा का सबंध हज ही तक सीमित रह जाता तो कोई बात न थी, किन्तु सलात का भी तो उससे सनातन संबंध जुट गया है । आप नमाज कहीं पढ़ें, कैसे भी पढ़ें पर आपका मुँह सदा काबा की ओर ही रहेगा। मुहम्मद साहब ने इस प्रकार काबा की प्रतिष्ठा को केवल रहने ही नहीं दिया बल्कि उसको और भी व्यापक बना दिया । उनके पहले यूरुसेलम को जो गौरव प्राप्त था उनकी कृपा से वही मका को मिल गया । औरों के लिये ता मूर्तियों के तोड़क कट्टर रसूल के इस कृत्य का समाधान कठिन है; पर सूफियों को इसमें कोई उलझन की बात नहीं । भला जो बुतखानी और काबा में एक ही रोशनी का दर्शन कर सकता है उसकी बुद्धि काबा को बुतखाना समझकर हैरान कैसे हो सकती है ? अवश्य हज के जितने विधान हैं उन सब में युतपरस्ती की छाप है। और मुहम्मद साहब की समाधि भी पूजा की चीज समझी जाती है । तो भाव के भूखे सूफियों की दृष्टि में मजार, रौजा और दरगाह आदि की भी वही प्रतिष्ठा है जो इसलाम में काबा वा मुहम्मद साहब की कब्र की । कारण कि पीर मे जीते जी हमारा जो संबंध स्थापित हो जाता है उसको हम भूल नहीं पाते, अपि तु उसकी समाधि की अभ्यर्चना से हम अपने हृदय के भार को हलका करते तथा उस पर दीपक जला अपने अंधकार को दूर करते हैं । यह कोई कोरी रस्मपरस्ती नहीं प्रत्युत हृदय की सहज वृत्ति है जो किसी बाहरी बंधन वा दबाव से नष्ट नहीं होती। यही तो कारण है जिससे कतिपय सूफी अपने पीर की समाधि को काबा से अधिक महत्त्व देते हैं और उसकी जियारत को हज से कम नहीं समझते । उनकी दृष्टि में देखी का अनदेखी से कहीं अधिक महत्त्व है। सिद्ध सूफी तो कल्ब में किंबला मानते (१) पहाधियों ने इसका घोर विरोर किया और बहुत मे विधानों को कुफ ठह राया। किंतु हेजाज के वर्तमान शासक 'इन्नसऊद' इस विषय में रोक टोक नहीं करते। (२) स्टडीज़ इन इसलामिक मिस्टीसीम, पृ० ४४ ।