पृष्ठ:तसव्वुफ और सूफीमत.pdf/९८

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साधन हैं, बाहर कहीं मका में नहीं। भीतर परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं बाहर किसी हज में नहीं। यदि हज में परंपरा का पालन एवं मुसलिम एकता का निर्वाह है तो जकात में लोक-मंगल का विधान । इसलाम में जकात त्याग-पक्ष है। अवश्य ही मुहम्मद साहब ने जकात को इसलाम का अनिवार्य अग बनाकर दीन-दुखियों का हित किया। किन्तु वस्तुतः जकात में दान का भाव नहीं, कर का भाव है। सचमुच इसलाम के इस विधान से प्रकट जाता है कि इसलाम वास्तव में शासन चाहता है कुछ हृदय का अनुशासन नहीं । हाँ, हृदय लाभ-हानि के आँकड़ों से परितुष्ट हो जाता तो सूफियों को जकात से पूरा पड़ जाता। परंतु तसव्वुफ को इस क्षेत्र में भी भाव का व्यवसाय करना था, कुछ अानबान का विधान नहीं। निदान जकात में त्याग वा देने का संकेत मिला तो यही उनके लिये बहुत था। उन्हें कभी इस बात की चिंता न हुई कि जकात का मुख्य प्रयोजन इसलाम का दल संघटन और उसका प्रचार है। क्योंकि जकात को इसलाम का मुख्य अंग बनाने का सीधा अभिप्राय है कि इसलामी संघ में निर्धन भूखों न मरे, धनी समय पड़ने पर ऋष्ट न सहे, प्रचारक धन के अभाव के कारण शिथिल न पड़ें; संक्षेप में मुसलिम सुखी रहें, इसलाम की उन्नति हो और लोग उसके महत्त्व की कामना करें । कुछ यह नहीं कि मुसलमान सर्वस्व त्याग संन्यासी बन जाय । अतएव सूफियों ने जकात को बिल्कुल दूसरे ही रूप में लिया। उनके बीच दया दाक्षिण्य वा उपकार की दृष्टि से जकात की प्रतिष्ठा हुई। उनको निश्चित हो गया कि वित्त से प्रियतम न मिलेगा । उसको अपनाने के लिये तो त्यागी और सती होना चाहिए। जर, ज़मीन, जन की मोहत्रयी में उनके लिये अाकर्षण नहीं। वे अपना दिल परम प्रियतम को दे चुके तो बस उसी के संभोग के लिये लालायित हैं। उन्हें इस बात का ध्यान ही नहीं कि उनके पास क्या है, कितना है और किसे देना है। उनको तो बस यही सनक है कि प्रियतम के अतिरिक्त उनके पास और कुछ भी न रहे। अहं तक उनके लिये भारी है। यहाँ तक कि त्याग के फल से भी वे मुंह मोड़ते हैं। एक सूफी का तो स्वयं कहना ही है---- “मैंने दीनता से उसे खोजा । इस खोज में दीनता भी मुझे संपन्नता सी प्रतीत ६