प्राणियों का परिवार नष्ट हो जाएगा। घर की स्त्रियां रात को साग खोंटकर ले आती हैं। वही उबालकर नमक से खाकर सो रहती हैं। दूसरे-तीसरे दिन अन्न कभी-कभी, वह भी थोड़ा-सा मुंह में चला जाता है। हम लोग तो चाकरी-मजूरी भी नहीं कर सकते। मटर की फसल भी नष्ट हो गई। थोड़ी-सी ईख रही, उसे पेरकर सोचा था कि गुड़ बनाकर बेच लेंगे, तो आपको भी कुछ देंगे और कुछ बाल-बच्चों के खाने के काम में आएगा।
फिर क्या हुआ, उसकी बिक्री भी चट कर गए? तुमको देना तो है नहीं, बात बनाने आए हो।
महाराज! मनुवां गुलौर झोंक रहा था, जब उसने सुना कि जमींदार का तगादा आ गया है, वह लोग गुड उठाकर ले जा रहे हैं, तो घबरा गया। जलता हुआ गुड उसके हाथ पर पड़ गया। फिर भी हत्यारों ने उसके पानी पीने के लिए भी एक भेली न छोड़ी। यहीं बाजार में खड़े-खड़े बिकवा कर पाई-पाई ले ली। पानी के दाम मेरा गुड़ चला गया। आप इस समय दस रुपये से सहायता न करेंगे तो सब मर जाएंगे। बिहारी जी आपको...
भाग यहां से, चला है मुझको आशीर्वाद देने। पाजी कहीं का। देना न लेना, झूठ-मूठ ढंग साधने आया है। पुजारी! कोई यहां है नहीं क्या?—कहकर महन्तजी चिल्ला उठे।
भूखा और दरिद्र माधो सन्न हो गया। महन्त फिर बड़बड़ाने लगा—इनके बाप ने यहां पर जमा दिया है, बिहरिजी के पुछल्ले!
भयभीत माधो लड़खड़ाते पैर से चल पड़ा। उसका सिर चकरा रहा था। उसने मंदिर के सामने आकर भगवान को देखा। वह निश्चल प्रतिमा! ओह करुणा कहीं नहीं! भगवान के पास भी नहीं!
माधो किसी तरह सड़क पर आ गया। वहां मधुबन खड़ा था। उसने देखा कि माधो गिरना चाहता है। उसे संभालकर एक बार क्रूर-दृष्टि से उस चूने से पूते हुए झकाझक मंदिर की ओर देखा।
मधुबन गाढ़े की दोहर में अपना अंग छिपाए था। वह सबसे छिपना चाहता था। उसने धीरे से माधो को मिठाई की दूकान दिखाकर कुछ पैसे दिए और कहा—वहीं पर जल पीकर तुम बैठो। राजो के आने पर मैं तुमको बुला लूंगा।
मधुबन तो इतना कहकर सड़क के वृक्षों की अंधेरी छाया में छिप गया, और माधो जल पीने चला गया। आज उसको दिन-भर कुछ खाने के लिए नहीं मिला था।
उधर राजो चुपचाप महन्तजी के सामने खड़ी रही। उसके मन में भीषण क्रोध उबल रहा था; किंतु महन्तजी को भी न जाने क्या हो गया था कि उसे जाने के लिए तब तक नहीं कहा था! राजो ने पूछा-महाराज! यह सब किसलिए!
किसलिए? यह सब?—चौंककर महन्तजी बोले।
ठाकुरजी के घर में दुखियों और दीनों को आश्रय न मिले तो फिर क्या यह सब ढोंग नहीं? यह दरिद्र किसान क्या थोड़ी-सी भी सहानुभूति देवता के घर से भीख में नहीं पा सकता था? हम लोग गृहस्थ हैं, अपने दिन-रात के लिए जुटाकर रखें तो ठीक भी हैं। अनेक पाप, अपराध, छल-छन्द करके जो कुछ पेट काटकर देवता के लिए दिया जाता है, क्या वह भी ऐसे ही कामों के लिए है? मन में दया नहीं, सूखा-सा...
राजकुमारी तुम्हारा ही नाम है न? मैं सुन चुका हूं कि तुम कैसी माया जानती हो।