पृष्ठ:तितली.djvu/१२६

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रामदीन ने एक बार इधर-उधर देखा, फिर जैसे प्रकृतिस्थ हो गया। इधर कई महीनों से वह धामपुर को भूल गया था। उसे अच्छा खाना मिलता। काम करना पड़ता। तब अन्य बातों की चिंता क्यों करे? आज सामने मधुबन! क्षण भर में उसे अपने बंदी-जीवन का ज्ञान हो गया। वह स्वतंत्रता कि लिए छट-पटा उठा।

मधुबन बाबू!—वह चीत्कार कर उठा।

क्या तू छूट गया रे, नौकरी कर रहा है?

नहीं तो, वही जेल का कोयला ढो रहा हूं। और कौन है तेरे साथ? कोई नहीं, यही अंतिम गाड़ी थी। मैं ले जा रहा हूं और लोग आगे चले गये हैं।

दूर पर प्रशांत संध्या की छाती को धड़काते हुए कोई रेलगाड़ी स्टेशन की ओर आ रही थी। बिजली की तरह एक बात मधुबन के मन में कौंध उठी।

उसने पूछा—मैं कलकत्ता जा रहा हूं—तू भी चलेगा?

रामदीन-नटखट! अवसर मिलने पर कुछ उत्पात-हलचल-उपद्रव मचाने का आनन्द छोड़ना नहीं चाहता। और मधुबन तो संसार की व्यवस्था के विरुद्ध हो ही गया था। रामदीन ने कहा-सच! चलूं?

हां, चल!

रामदीन ने एक बार किले की धुंधली छाया को देखा और वह स्टेशन की ओर भाग चला। पीछे-पीछे मधुबन!

गाड़ी के पिछले डिब्बे प्लेटफार्म के बाहर लाइन में खड़े थे। प्लेटफार्म के ढालूवें छोर पर खड़े होकर गार्ड ने धीरे-धीरे हरी झंडी दिखाई। उस जगह पहुंचकर भी मधुबन और रामदीन हताश हो गए थे। टिकट लेने का समय नहीं। गाड़ी चल चकी है. उधर लौटने से पकड़े जाने का भय। गार्ड वाला डिब्बा गार्ड के समीप पहुंचा। दूर खड़े स्टेशन-मास्टर से कुछ संकेत करते हुए अभ्यस्त गार्ड का पैर, डब्बे की पटरी पर तो पहुंचा; पर वह चूक गया! दूसरा पैल फिसल गया। दूसरे ही क्षण कोई भयानक घटना हो जाती, परंतु मधुबन ने बड़ी तत्परता से गार्ड को खींच लिया। गाड़ी खड़ी हुई। स्टेशन पर आकर गार्ड ने मधुबन को दस रुपये का एक नोट देना चाहा। उसने कहा—नहीं, हम लोग देहाती हैं, कलकत्ता जाना चाहते हैं। गार्ड ने प्रसन्नता से उन दोनों को अपने डिब्बे में बिठा लिया।

गाड़ी कलकत्ता के लिए चल पड़ी।

उसी समय बनजरिया में उदासी से भरा हुआ दिन ढल रहा था। सिरिस के वृक्ष के नीचे, अपनी दोनों हथेलियों पर मुंह रखे हुए, राजकुमारी चुपचाप आंसू की बूंदें गिरा रही थी। उसी के सामने, बटाइ के खेत में से आये हुए, जौ-गेहूं के बोझ पड़े थे। गऊ उसे सुख से खा रही थी। परंतु राजकुमारी उसे हांकती न थी।

मलिया भी पीठ पर रस्सी और हाथ में गगरी लिये पानी भरने के लिए दूसरी ओर चली जा रही थी।

राजकुमारी मन-ही-मन सोच रही थी—मैं ही इन उपद्रवों की जड़ हूं। न जाने किस बुरी घड़ी में, मेरे सीधे-सादे हृदय में, संसार की अप्राप्त सुखलालसा जाग उठी थी, जिससे