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पृष्ठ:तितली.djvu/५४

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राजकुमारी के मन में यह कुतूहल उत्पन्न हुआ था कि चौबे के मन में वह बात अभी बनी हुई है या भूल गए। उसे जान लेने पर वह संतुष्ट हो जाएगी। बस; और कुछ नहीं। मधुबन! नहीं, आज वह संध्या को घर लौटने के लिए कह गया है। तो फिर, रसोई बनाने की भी आवश्यकता नहीं। वह स्थिर होकर प्रतीक्षा करने लगी। किंतु...बहुत दिनों पर चौबेजी आवेंगे, उनके लिए जलपान का कुछ प्रबंध होना चाहिए। राजकुमारी ने अपनी गृहस्थी के भंडार-घर में जितनी हांडियां टटोलीं, सब सूनी मिलीं। उसकी खीझ बढ़ गई। फिर इस खोखली गृहस्थी का तो उसे अभी अनुभव भी न हुआ था। आज मानो वह शेरकोट अपनी अंतिम परीक्षा में असफल हुआ। राजकुमारी का क्रोध उबल पड़ा। अपनी अग्निमयी आंखों को घुमाकर वह जिधर ही ले जाती थी. अभाव का खोखला मंह विकृत रूप से परिचय देकर जैसे उसकी हंसी उड़ाने के लिए मौन हो जाता। वह पागल होकर बोली—यह भी कोई जीवन है। क्या है भाभी! मैं आ गया!—कहते हुए चौबे ने घर में प्रवेश किया। राजकुमारी अपना बूंघट खींचते हुए काठ की चौकी दिखाकर बोली—बैठिए। ____ क्या कहूं, तहसीलदार के यहां ठहर जाना पड़ा। उन्होंने बिना कुछ खिलाए आने ही नहीं दिया। सो भाभी! आज तो क्षमा करो, फिर किसी दिन आकर खा जाऊंगा। कुछ मेरे लिए बनाया तो नहीं? राजकुमारी रुद्ध कंठ से बोली नहीं तो, आए बिना मैं कैसे क्या करती! तो फिर कुछ तो... ___नहीं आज कुछ नहीं! हां, और क्या समाचार है। कुछ सुनाओ।—कहकर चौबे ने एक बार सतृष्ण नेत्रों से उस दरिद्र विधवा की ओर देखा। सुखदेव! कितने दिनों पर मेरा समाचार पूछ रहे हो, मुझे भी स्मरण नहीं; सब भूल गई हूं। कहने की कोई बात हो भी। क्या कहूं। भाभी! मैं बड़ा अभागा हूं। मैं तो घर से निकाला जाकर कष्टमय जीवन ही बीता रहा हूं। तुम्हारे चले आने के बाद मैं कुछ ही दिनों तक घर पर रह सका। जो थोड़ा खेत बचा था उसे बंधक रखकर बड़े भाई के लिए एक स्त्री खरीदकर जब आई, तो मेरे लिए रोटी का प्रश्न सामने खड़ा होकर हंसने लगा। मैं नौकरी के बहाने परदेश चला। मेरा मन भी वहां लगता न था। गांव काटने को दौड़ता था। कलकत्ता में किसी तरह एक थियेटर की दरबानी मिली। मैं उसके साथ बराबर परदेश घूमने लगा। रसोई भी बनाता रहा। हां, बीच में मैं संग होने से हारमोनियम सीखता रहा। फिर एक दिन बनारस में जब हमारी कंपनी खेल कर रही थी, राजा साहब से भेंट हो गई। जब उन्हें सब हाल मालूम हुआ, तो उन्होंने कहा तुम चलो, मेरे यहां सुख से रहो। क्यों परदेश में मारे-मारे फिर रह हो? तब मैं राजा साहब का दरबारी बना। उन्हें कभी कोई अच्छी चीज बनाकर खिलाता, ठंडाई बनाता और कभीकभी बाजा भी सुनाता। मेरे जीवन का कोई लक्ष्य न था। रुपया कमाने की इच्छा नहीं। दिन बीतने लगे। कभी-कभी, न जाने क्यों, तुमको स्मरण कर लेता। जैसे इस संसार में... राजकुमारी के नस-नस में बिजली दौड़ने लगी थी। एक अभागे युवक का जो सब ओर से ठुकराए जाने पर भी उसको स्मरण करता था।—रूप उसकी आंखों के सामने विराट