पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१०२

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राजापुर के तुलसीदास ६१ साहब को दिया गया। उन्होंने जाल छुड़वा . कर पुस्तक निकलवाया । और काशीनरेश ने कुशल कारीगरों से उसका जीर्णोद्धार कराया। फिर भी ६ कांड इस प्रकार गल गए कि पढ़ने के लायक न रह गए । केवल अयोध्याकांड मध्य होने से बच गया था । छिन्न भिन्न कांडों को अपने यहां रखकर काशीनरेश ने अयोध्याकांड को एक ऐसे जरी के वन में वेष्टित करा कर राजापुर भेजा जिसमें उनके गुरु काष्ठजिह्वा स्वामी का बनाया हुआ पद स्वर्णाक्षरों में अंकित है। यह वेष्टन अभी भी मौजूद है। पुस्तक में पानी के धब्बे और उसके सुधार के चिन्ह बने हुए हैं। [तुलसीचरित, पृष्ठ ३४-५] इसके पहले इस कांड की जनश्रुति यह थी- पावन तीरथराज से जोजन पांचेक दूर । कालिंदी के दखिन तट विलसत राजापूर ॥ तुलसिदास के वास को सो प्रसिद्ध असथान । एक बार गोस्वामि जन काशी कीन्ह पयान || पूरन रामायन स्वकृत लिखि सोधी निज पानि । गनपति निज शिष्यहि दई तासु प्रम पहिचानि ।। गनपति जू के बस में पुस्तक रही अनूप । रक्षा कीन्हीं यतन सौ तासु शक्ति अनुरूप ॥ साधु दुष्ट इफ लै भगो पोथी अवसर पाय । रक्षक पीछे देखि खल जल में दई वहाय । जल से फाढत हेत. जन कीन्हें यतन अपार । एक अयोध्याकांड को तदपि भयो उद्धार । [निवेदन : रामायण अयोध्याकांडः]