पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१०७

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६६ तुलसी की जीवन-भूमि तुलसी कृत रामायणौ, तुम सब देहु पड़ाय । तौ जनु दीन्यों दान जिय, पवनपूत कपिराय ।। [.भक्तमाला, पृष्ठ ९९५-६ ] और यदि उस समय 'राजापुर' में कोई 'तुलसी-मंदिर' होता तो ? तो क्या इस समय राजापुर में 'संकटमोचन' के अतिरिक्त तुलसी का कुछ और था ? कैसे कहा जाय ? उधर तुलसी-मंदिर 'रामप्रसाद' जी का 'श्रीमहाराजचरित्र' तो 'कुछ और ही बोलता है और कभी भूल कर भी राजापुर का नाम नहीं लेता। हाँ, उसके अनुसार तो रामप्रसाद जी के इष्ट हनुमान हैं चित्रकूट के 'टीही' न कि किसी राजापुर के कोई 'संकटमोचन' । स्मरण रहे उन्हीं के विषय में कहा गया है- परम तरिष्ट इष्ट निज जानी । पूजन करहिं कर्म भन बानी । अति सनेह अर्चन जब करहीं। दृग राजीव श्रेनि जल झरहीं। [श्रीमहाराजचरित्र, पृष्ठ ८०] 'चित्रकूट' का यश 'राजापुर' को क्यों मिला ? समाधान कौन करे ? सभी तो राजापुर के गहरे संस्कार से ग्रस्त हैं ? किंतु तो भी इतना तो मानना ही होगा कि इस 'राजापुर-भक्ति का कुछ कारण है। राम-कृपा न सही, प्रभु-कृपा सही। कहीं न कहीं कारण तो अवश्य है। कृपा के विना भला ऐसा कार्य किसी से सध सकता है ? पता नहीं, 'आरानिवासी श्री शिवनंदन सहाय जी को श्री सहाय की सूझ क्या गया कि उन्होंने कुछ ताड़ कर आशंका तान ही तो दिया