पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१३८

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'तुलसी का जन्मस्थान '१२७ था। यहाँ तुलसी का गीत ही पर्याप्त है। सुनिए । उसी तापसी प्रदेश की बात है- सखि! नीके के निरखि कोऊ सुठि सुंदर बटोही । मधुर मूरति मदनमोहन जोहन जोग,

'बदन सोभासदन देखिहौं भोही ॥१॥

साँवरे गोरे फिसोर, सुर मुनि चित्त-चोर; उभयं अंतर, एक. नारि . सोही । मनहुँ वारिद बिधु बीच ललित अति, राजति तड़ित निज सहज विछोही ॥२॥ उर धीरजहि धरि, - जन्म सफल फरि, सुनहि सुमुखि ! जनि विकल होही। को जाने कौने सुकृत.लह्यौ है लोचन-लाडु, ताहि तें वारहि बार कहति तोही ॥३॥ सखिहि सुसिख दई, प्रम-मगन भई, सुरति विसरि गई आपनी ओही । तुलसी रही है ठाड़ी, पाहन गढ़ी सी काढ़ी, न जाने कहाँ ते आई, कौन की' को ही ॥४॥१६॥ [गीतावली, अयोध्याकांड ] "तुलसी रही है ठाढ़ी' के कारण यदि कोई इसको 'तुलसी' कहे तो क्षति क्या है ? 'अनन्य' ने खुल कर यों ही नहीं लिख दिया है 'तुलसी' को सखी । नहीं । उनके वैसा लिखने का कारण है। गीत' को दृष्टि में रख कर पढ़ें यह- सकल सखियन में सिरोमनि दासतुलसी तुम रही। और कृपया भूल न जाएं कि इसके संबंध में स्वयं कवि का कथन है-