पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१६१

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१५८ तुलसी की जीवन-भूमि तो फिर 'कुटिल कीट' को छोड़कर इस अर्थ के हेतु सोरों के 'कुटीला' को क्यों पकड़ा जाय ? और क्यों न 'विच्छ' में ही इसको चरितार्थ समझा जाय ? परंतु फिर भी इसमें एक दोप घना ही रह जाता है। इसमें तो 'जननी' का दोप नहीं । उसका नाश तो संतान के जीवन का फल है। फिर उसकी यह भर्त्सना कैसी? " उधर एक दूसरा अर्थ भी । इसकी टिप्पणी में श्री वियोगी हरि जी लिखते हैं- (१)तनु-नन्यो'-श्री वैजनाथ जी ने 'स्वचा तजत' और भट्ट जी ने 'तनु तजेउ' पाठ मानकर यह अर्थ किया कि जैसे साँप अपनी केंचुल को छोड़ देता है । बैजनाथ जी ने तो 'स्वचा' लिखकर स्पष्ट ही कर दिया है। भट्ट जी 'तनु का अर्थ 'काँचली कर रहे हैं। यह अर्थ भी संभव हो सकता है। काशी नागरी-प्रचारिणी सभा की प्रति के अनुसार हमने तनुजन्यो। पाठ शुद्ध माना है। साँप अपने बच्चों को जनते ही छोड़ देता है। प्रवाद तो यह है कि सर्पिणी उन्हें जन्मते ही खा जाती है; जो भागकर निकल जाते हैं, वे ही बचते हैं। (२) 'ज्यों तज्यो मातु पिता हूँ' '-माता-पिता मुझे अभागा जान कर छोड़ बैठे। बचपन में ही, मेरे दुर्भाग्य से मुझे छोड़कर परलोकवासी हो गए। [विनय-पत्रिका ( सटीक), पृष्ठ ४२१] किंतु सच पूछिए तो इससे संतोष नहीं होता। इसमें माता- पिता का दोष क्या ? यह तो उनकी शुद्ध विवशता है न ? हमारी दृष्टि में तुलसी को माता-पिता के इस कार्य तुलसी की वेदना से क्षोभ है। कारण कुछ तो होगा ही। तभी तो आत्मतृप्ति के लिए इसी के आगे कहते भी हैं- .