पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/१९१

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१८८ तुलसी की जन्म-भूमि खीस हू में रीसवे फी वानि, राम रीसत है, रीझे है है राम की दुहाई रघुराय जू ||१३६।। [कवितावली, उत्तर ] वस इसी खीझरीझ' का परिणाम है कि 'तुलसी' अपने विषय में पछता कर कहते हैं- जातुधान भालु कपि केवट विहंग जो जी पाल्यो नाय सद्य सोमो भयो काम-काज को। आरत अनाथ दीन मलिन सरन आए राखे अपनाह, सो मुभाष महराज को। नाम तुलसी 4 भादे भाग, सो कहायो दास, फिए अंगीकार ऐसे बड़े दगाबाज को। साहेब समर्थ दसरत्य के दयालु देव, दूसरो न तोसों तुही मापने की लाज को ।। १३ ।। [कविता०, उचर] अतएव जब तुलसी 'रामकथा' के विषय में लिखते हैं- रामहि मिय पावनि तुलसी तब 'तुलसी' का भी कुछ विशेप अर्थ होता हैं और जव इसी के आगे यह भी स्पष्ट करते हैं कि- तुलसिदास हित हिय हुलसी सी। तव 'हुलसी' की भी कुछ विशेष चेतना हृदय में होती है। इतिहास संभवतः यह है- फरुनाकर की करना भई। मिटी मीचु, लहि लंक संक गह, फाहू सों न खुनिस खई। दसमुख तज्यो. दूध-माखी ज्यों आयु काढ़ि साड़ी लई । भव भूपन सोइ कियो विभीपन मुद-मंगल-महिमामई । I