पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२१४

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तुलसी की जीवन-यात्रा देखो प्रभु अवधहि चले, जन्मथान अनुमानि । वीच प्रेम वस विप्रग्रह, रहे प्रीति पहिचानि ॥ चरित्र, पृष्ठ २१-२२] भवानीदास की भाषा सरल पर उनका संकेत गूढ़ होता है। वृंदावन-गमन हमारी समझ में तो इस रचना में थोड़े में वहुत कुछ कह दिया गया है। सोचिए तो सही, इस दोहे का मर्म क्या है- श्रम करि दछिन ते चले, अवध जन्म अस्थान। वृंदावन दिज: , ग्रह रहे, ऐसे कृपानिधान ।। 'कृपानिधान' :की इस कृपा के भीतर हमें तो ऐसा दिखाई देता है कि जब-उदार और दृढ़ अकबर ने मंदिर के नवनिर्माण की अनुमति दे दी और काशी तथा मथुरा में राजा टोडरमल और मानसिंह आदि के उद्योग से बहुत से मंदिर वन चले तब लोगों को जन्म स्थान की भी. सूझी और इसका भी आंदोलन दक्षिण से उठा। परंतु अकबर की नीतिःथी इस स्थान के लिए कुछ कड़ी। • अतः यह देखकर उक्त आंदोलन - आगे न बढ़ सका। संभव है वीरवर ने कुछ बीच-बचाव कर दिया हो। हुआ कुछ भी हो, किंतु यह संभव नहीं कि इसका उस समय की राजनीति से कुछ नाता न रहा हो । यही नहीं, इसी की छाया में 'कृष्ण' के 'रामरूप का रहस्य भी आप ही स्फुट: हो उठता है और दोनों का मिला-जुला प्रभाव : यह पड़ता है कि, हो न हो, यहाँ भी तुलसी का कुछ ध्येय हो, जिसकी सफलता के अभाव में ‘उन्हें 'अवध' में, कुछ विशेष करने की सूझी हो.। कव उन्होंने कहाँ पर रहकर क्या.काम किया इसका - पता क्या ? -किंतु जो सव के सामने है वह यह है कि अयोध्या में जन्म-स्थान' के मंदिर का निर्माण-न हो सका और उस प्रतिमा की प्रतिष्ठा वृदावन . .