पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२१५

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२१२ तुलसी की जन्म-भूमि में ही हो गई। तुलसीदास बस काशी के 'विदुमाधव' की छवि पर निहाल होते रहे। तुलसीदास का वृदावन-वास किस महत्त्व का है, इसका कुछ - आभास तो हो ही गया होगा। भवानीदास का अगला कथन विपुल फाल सतसंग हित, कियौ वास विश्राम । पुनि आए, श्री अवध पुर, जो निज प्रभु को धाम || पता नहीं 'निज प्रभु को धाम' की न्याप्ति कितनी है। क्या इसका अर्थ 'निज धाम भी लगाया जा सकता है ? न सही। जो घात प्रकट है वह यह है कि तुलसी को भी फाशी-यास अवध छोड़कर काशी जाना पड़ा विषाद के साथ, कुछ सोच-समझ कर । जी को समझा-बुझा कर । किंतु 'कराल कलिकाल' की कृपा वहाँ भी वनी रही। वहाँ भी कुछ मन की न हो सकी और तन को कष्ट मिलने लगा तो अंत में प्रवकर विश्वनाथ के दरबार में पहुंचे और अपनी सारी स्थिति का कवित्ता में ज्ञापन किया। खुलकर कह ही तो दिया- जीचे फी न लालसा, दवा महादेव ! मोहिं, मालुम है तोहि मरिवेई फो रहतु हो। फामरिपु राम के गुलामनि फो फामतक, अवलंब जगदंब सहित चहतु हो । रोग भयो भूत सो, कुसूत भयो तुलसी को, भूतनाथ पाहि पदपंकज गहतु हो। ल्याइए तो जानकी-रमन-जन जानि निय, मारिए, तो माँगी मीत्रु सुधिये फहनु हो ॥१६७}} [कवितावली, उचर]