पृष्ठ:तुलसी की जीवन-भूमि.pdf/२२७

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.२२४ तुलसी की जोवन-भूमि भदावर बुंदेले चंदेले बयेले । सबै ढाग के राब राबत सकेले। कह देह छनभंग को लाहु लीजै । फर जो कृपा राम संग्राम फीजे । दिल्लीपति नुलतान, भोज मौज दरिबाउ सम। घटसंभव सम पान, फरहि राम की कृपा ते॥ [चरित्र, पृष्ट ७१-२] गोस्वामी जी का उपदेश है- तत्र फापी गोसाई सहज मुभाई मुनि ली यह बाता । जेहि देस रही तामु अनादर की उचित न ताता || इमि हांस उपद्रव देश बिनातन अनुमासन बिन माने । फोटिन जिय पीडा अगनित हिंसा अमित होत हित हाने ।। निज मुख हित फारन देव विडारन फिमि फरि फाज फरीजै। आपुहि जो बइये मिलि तेहि अये तो यामै फा डीजे । यहि भाँति सिधाये जमुनहि आए नौका सचिर मगाई। चढ़ि चले सुभाए अति नुख पाए भजन फरत मनभाई ।। [चद्दी, पृष्ठ ७२] सारांश यह कि हमें 'करामात' की भाषा में इतिहास हूँढ़ना चाहिए कुछ निरे इतिहास में अपना अतीत नहीं। शासक की दिनचर्या में किसी जाति का इतिहास शोष नहीं होता। हाँ, उसके रागद्वेप का उभार अवश्य होता है। निदान उससे अलग रह साहित्य की सृष्टि की जाती है। राष्ट्र की आत्मा का निवास उसी में होता है। अस्तु, उक्त अध्ययन के आधार पर सीधे से थोड़े में कहा जा सकता है कि तुलसी आँख के तिल ही नहीं अपने समय में बहुतों की आँस्न की किरकिरी भी थे और इसी से अपने इष्ट से संकट के समय एक 'धनाक्षरी' में बड़ी सरलता से कह भी जाते हैं:-