दच्तिण श्रफ्तीका का सत्याग्रह
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समय मेरा स्वदेश लौट ज्ञाना किसी प्रकार अनुचित नहीं कह्दा जासकता था। येसब्र दल्तोलें पेश फरने पर भी मुझे
केवल इस शत्तेपर वहाँ से छुट्टो मिली कि अफ्रीका में भारतीयों
पर यदि फोई अकल्पित आपत्ति आ पढ़े और मेरी वहाँ आव-
श्यकता दो, तो मेरे भाई जिस समय चाहें मुझे! वहाँ वापिस बुल्ञा सकते हैं.और मुमे भी उसी समय लौट जाना चाहिए । यात्रा काऔर वहाँ रहने काखच मेरे लिए उन्हें इकट्ठा जुठा
देना चाहिए। इस शर्त पर मेंवापस लौटा ।
स्वर्गीय गोखले की सलाह से और उनकी छत्रछ्वाया में
सावजनिक काम करने फी इच्छा से, साथ ही आजीविका जी
प्राप्त करने की इच्छा से मैंनेयह निश्चय किया कि मेंबम्घई में
ही वैरिस्टरी करूँ ।चेम्बर भी लिये। कुछ-छुछ वकालत चक्षने लगी। दक्षिण अफ्रोका से मेरा इतना घनिष्ट सम्बन्ध हो चुका
था, कि सिर्फ दक्षिण अफ्रीका से लौटे हुए मवकिज्ञ ही मुमे इतना देसकते थे,जिससे मेंअपना खचे भल्री भाँति चला
सक्ूँ । पर मेरे भाग्य मेंएक जगह शान्ति के साथ बैठना नहीं
लिखा था। मुश्कित्ष से मेंवम्बई मेंशान्ति केसाथ तीत चार भद्दीने रहा हूँगा कि अफ्रीका से तार आया--/परित्यिति गस्मोर है । सि० चेल्तरलेन शोध्र ही आ रहे, हैं। आपकी उपस्थिति की आवश्यकता है|?
बम्बई के आफिस और घर को वढोरा और पहले दही स्टीमर से रवाना हुआ। सन् १६४०२ का अन्त मिकट था।
१६०९ के श्रन्त में मैंभारत जौठा था। १६०२ के साचे-
अम्रेल् मेंबस्बई मेंमेने अपना आफिस खोला था । केवल तार
से मैंअधिक नहीं जान सकता था। मैंने यह अनुभान किया कि गड़बड़ी हैकहीं ट्रान्सवाल् मेंही । पर इस खयाज्ञ से कि घार