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५ * “युद्ध के बाद
ह: महीने के अन्दर ही लौट आँगा, में वालबच्चों को यहों छोड़
ऋर अफेला दी रवाना हो गया। डबन ,पहुँचते ही सारे समाचार
पुनकर मेंतो स्तब्घ-सा रह गया |, हम सबका यही खयाल था कि लड़ाई के बाद, समस्त दक्षिण अफ्रोका में भारतीयों की
स्थिति अच्छी हो जायेगी ? ट्रान्सवाल और फ्री स्टेट में तो
कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि लाडे तन्सडाऊन,
ज्ञाढ शेल्वने, वगेरा बड़े-बड़े अधिकारी कट्दा करते थे कि भारतीयों की दु्वंशा भी ज़ड़ाई का एक कारण है। प्रिटोरिया का ब्रिटिश राजदृत भी मुझसे कई बार कह चुका था कि ट्रान्सवाल ब्रिटिश
काक्षोनी हुआ नहीं कि भारतीयों के तमाम दुःख दूर हुए नहों। गोरे ज्ञोग भी यही मानते थे कि राज्यसत्ता यदि बद्क्ष गयी, तो वहाँ केपुरानेकानून भारतीयों पर कभी ज्ञागू नहीं किए जा सकते। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह था कि लड़ाई के पहले जमीन का
नीक्षाम पुकारने वाक्े जो गोरे भारतीयों की बोली स्वीछार ही
नहीं करते थे वे भी उसे अब स्वीकार करने लग गये थे। और
इस पर कितने ही भारतीयों ने नीक्षास्र में जमीने खरीदी भी |
पर जब वे तदसील मेंजमीन का दस्तावेज रजिस्टर कराने के
लिए गये तो फौरन १८८५ का कानून अधिकारी ने उनके सामने खड़ा कर दिया और जमीन का रजिष्टर करने से इन्कार
कर दिया। डवेन उतरते ह्वी मैंने यह सुना | अगुआओं ने मुझ से कहा कि आपको ट्रन्सदाल् जाना होगा। पहले तो प्रि०
चम्बरलेन यहीं आवेंगे। यहाँ की परिस्थिति से भी उन्हें परिचित
कर देना आवश्यक है । बस, यहाँ का काम समाप्त हुआ कि
, उनके ही पीछे पोछे आप ट्रान्सवाल भी चले जावें |
नेटाज्न मेंमि० चेम्बरलेनसेएक डेप्यूटेशन ( शिष्ट-मण्डत्त )
'मिल्ा । उन्होंने सारी बातें ध्यानपूषेक सुन कीं और यह वचन