पृष्ठ:दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह Satyagraha in South Africa.pdf/१२५

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दद्िण अफ्रीका का सत्वाप्रह

हर

दिया कि “में नेटाल केसन्त्रि-मन्ठल सेइस विषय में बातचीत

करूँगा ।” खयं मैंने लड़ाई के पहले नेटालञ मेंबने हुए कानूत में किसी परिवर्तेत कीकोई आशा नहीं की थी। इन कामूनों का घरणुन तो पिछले अध्यायों मेंपाठक पढ़ ही चुके हैं।

पाठकों को अवश्य याद होगा कि प्रध्येक भारतीय लड़ाई के पहले ट्रान्सवा्न मेंजिससमय चाहता जा सकता था | पर अब

मैंनेदेखा कि वाद दूसरी ही है । उस समय जो ट्रान्सवा्

मेंजाने-आने की रुकावट थी, वह वो गोरे और भारवीय सबके लिए एफसी थी। अबतक ट्रान्सवाल की हालत यह थी कि अगर बहुत से आदसी ट्रान्सवात्ञ मेंघुस जाते तो सबको पूरेअन्नन्वस्

भी वहाँनमि्षते, क्योंकि लढ़ाई के कारण दुकानें बन्दृर्थी। दूसरे, दूकानों में जोमाल था उसमें से अधिकांश माल बोशर

सरकार हो क्षमाप्त कर गयी थी। इसलिए मैंने अपने दिल्ल म॑ यह

सोचा कि यदि यह रुफावर थोड़े ही दिनों के लिए हो, तो कोई विशेष चिन्ता की बात नहीं। पर गोरों और भारतीयों को द्रान्सवाल में जाने के क्षिए जो परवाना दिया जाता था उसकी ,

रीति-नीति मेंछुछ भेद था।और इसी बात ने मुझे शंका और

संशय मेंदात्न दिया। परवाना देनेके आफिम दक्षिण अफ्रीका

के भिन्न-भिन्न बन्दरों मेंखोले गये थे। गोरों को वो माँगते ही

परवाना मिल सकता था पर भारतीयों के लिए द्रान्सवाल् में

एक एशियाटिक विभाग र्रोक्ष दिया गया था | | यह विभाग एक विल्हुल नयी बात थी हिन्दुत्तानी इस विभाग के अधिकारी को अर्जी देदेथे। इस प्रार्थना केस्वीकार

दोने पर उवेन अथवा अन्य वन्द्रों से' बह साधारण परवाना मित् सकता था। अगर मैंभो इसी प्रकार परवाने के लिए दररवास्त देता, तव तो म्ि० देम्बरलेन के ट्रान्सचाल छोड़ कर