पृष्ठ:दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह Satyagraha in South Africa.pdf/१२६

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बुद्ध के बाद

चले जाने के पहले मुझे परवाना मिलने की आशा नहीं करनी

चादिये थी। न ट्रान्सवाल के भारतवासी मेरे लिए ऐसा परवाना

लेकर भेज सके थे । यह उनके शक्ति के बाहर की वात थी ।

मेरे परवाने के लिएं वो वे पर्णतः मेरे ठर्येन के परिचय के ऊपर

निर्भर थे। परवाना देने वाले अधिकारी को मेंनहीं जानता था। ,पर डर्वन के पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट को में अवश्य जानता था। इसलिए मेंउन्हें अपने साथ ले गया और उनके द्वारा उन्हें धपनी पहषान देदी |ट्रान्सवाल में में १८६३ में एफ साल तक रह

चुका हूँयह कहकर परवाना लेकर मेंप्रिटोरिया पहुँचा । यहाँ पर मैंने एक बिल्कूल मिन्‍न चायुभण्डक्ष देखा। मेंने देखा कि एशियांटिक विभाग एक भयंकर विभाग हैंऔर वह केवल भारतीयों को दवाने केलिए ही खोला गया है ) उधके अधिकारी वे लोग थे,जो लड़ाई केसमय भारत से फौज के साथ आये थे!और लड़ाई समाप्त होने पर दक्षिण अफ्रीका मे अपनी किस्मत आजमाने के लिए रह गये थे। उत्तमें सेअधिकाश रिश्वतखोर थे। विशेषतः दो पर तो इस अपराध के लिएः मुकदमा भी दायर हो चुका था। प्चों ने तो उन्हें छोड़ दिया

था , पर चूँकि उनके रिश्वत लेने केविषय में कोई सन्देह् नहीं था इसलिए वे डिसमिस कर दिये गये |पक्तपात की कोई हृद ही? नहीं थी। फिर जहाँ पर एक ऐसा विभाग विल्षकुल्ञ नया नया

ही खोला गया हो, और सो भी किसी जाति के स्वत्वों पर प्रद्दार करने के लिए, वहाँ तो अपनी सत्ता कायम रखने के लिए और उसके साथ ही दूसरी जाति के हकों कोकुचलकर अपनी कुश-

लठा दिखाने के लिए मुष्य नित्य नये-तये शत्र हूँढताहै। ठीक

येंही दाल यहाँ भी

मैंने देखा कि मुझे फिर सेश्रीगणेश करने होंगे! एशिया-