पृष्ठ:दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह Satyagraha in South Africa.pdf/१३८

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युद्ध फे बाद

बुद्धि केअनुसार तो कम्त-से-कम मुझे यही मालूम होता है कि

तदस्थ मनुष्य की चुद्धि उनके निर्णय को कुबूल न फरेगी । उपयेक्त दलील करने बातो नेअपनी सभ्यता को जितनी असद्दाय

बताया है,कोई भी सुघारक अपनी सभ्यता को उतनी असहयय

न चतावेगा । फम-से-कम मेंतो नहीं जञानवा कि किसी भी पूर्वी

तत्त्वज्ञानी कोऐसा भय हो कि अगर कहीं पश्चिमी जातियाँ

पूर्वीजातियोंके सपके मेंरतन्त्रतापूरवक आयें तो पूर्व फीसभ्यता

पश्चिमी सभ्यता फी बाढ़ मेंवालूकीतरद बद सकती है। इस

पूर्वीदत्त्वज्ञान का मुझे जो कुछ परिचय है, उसके बल्न पर मुझे

तो यही मालूम होता हैकि पूर्वीसभ्यता पश्चिम के स्वतंत्र संपके

सेन फेघल निर्मय रहती हैघल्कि उसका वह उत्तटा स्वागत भी फरती है। इसके विपरीत उदाहरण अगर पूर्व दृष्टिगोचर भी

होरहेद्वोंतोउनसेमेरे उपयुक्त सिद्धान्त में बाधा नहीं आ सकती |क्योंकि मुझे विश्वास हैकि उस (सिद्धान्त) के समर्थन

में अनेक उदाहरण पेश किए जा सकते हैंऔर यह जो कुछ भी

हो, पश्चिम के तस्लज्ञानियों का तो यही दावा है कि परिचमी

सभ्यता का सूलमत्र यही हैकि “पशुबत् सर्वोपरि है |” और

इसलिए इस सभ्यता के दिमायती पशुबल्ञ कोकायम रखने के लिए अपने समय का बढ़ा हिस्सा खर्च करता है | फिर इसका तो एक यह भी सिद्धान्त है कि जो ज्ञातियाँ अपनी आबश्यकवाओं को नहीं बढ़ावेंगी उतका आखिर नाश ही होगा ।

इन्हीं सिद्धान्तों कोलेकर पश्चिमी जातियाँ दक्षिण अफ्रीका मेंबसी हैं और उनकी संख्या के परिमाण से देखा जाय तो

असख्य दृबशियों को उन्होंने अपने अधीन कर रक्खा है। फिर

यह कैसे हो सकता हैकि वे दीन-द्वीन भारतीयों से ढरें! भौर

सभ्यता की दृष्टि से 5म्हेंज़रा भीसय नहीं है। इसका सबसे ॥।