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“इण्डियन ओपीनियन
सबसे नजदीकी स्टेशन 'फिनिक्स” वहांसे ३ मीक्ष पर है। पत्र का नाम पहले दी से 'इंडियन ओपीनियन! है। एक समय वह अंग्रेजी, गुजराती, तामित और हिन्दी में प्रकाशित द्वोता था।
पर तामिल और दिन्दी भी भारत्रद मालूम होने ज्ञगी। दूसरे,
इन दोनों भाषाओं के ऐसे क्ेखक नहीं मिलते थे, जो खेत पर
रह सकें और न उन लेखों पर कोई अंकुश ही रह सकता था।
इसक्षिए दोनों भाषाओं के बन्द करके केवल अंप्रजी और गुजराती विभाग ही कायम रक्खा गया। सत्याग्रह केआरम्भ
के समय पत्र इसी प्रकार चल्न रह था। संस्था मेंगुजराती,-
सभी थे। मनसुखताज नाजर हिन्दुस्तानी, वामिल और अंप्रजी
की अकाल सत्यु के बाद एक अग्रेज मित्र हथेट किचन उसके सम्पादक हुए। उनके बाद कुछ समय तक स्वर्गीय जोसेफ डोक नामक एक पादरी सज्जन रहे। बाद देनरी पोलक तो बरसों तक
उसके सम्पादक रदे ।इस अखबार के द्वारा कौम को सप्ताह की सभी खबरें दी जा सकती थी। जो भारतीय गुजराती नहीं जानते
थे, उन्हें अंम्जी विभाग द्वारा आन्दोलन की कुछ-कुछ शिक्ता
मिक्न जाया करती थी । और भारत, इंग्लैंड तथा दक्षिण अफ्रीका के अंग्रेजों केलिए तो इंडियन ओपीनियन! एक
साप्ताहिक समाचार पत्र का काम देता था। मैंयह मानता हूँ कि युद्ध कीदस्ती आतरिक बल्न पर स्थित है। वद्द बिना अख--
बार के भी लड़ा जासकता है। पर साथ द्वीमेरा यह भी'
अनुभव हैकि 'इण्डियन ओपीनियन! के कारण जो सुविधायें/ पैदा दो गयी, कौम को अनायास जो शिक्षा दी जा सकी, दुनिया के तमाम हिस्सों मेंबसनेवाल्े भारतीयों के पास जो समाचार
फेल्ञाये जा सकें, वे अन्य किसी अकार शायद नहीं किये जा सकते ये। इसलिए यह तो निम्चयपृ्वेक्र कद्दा जा सकता है-