दिए श्रप्मीफा का सत्मामह
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कद की सजा मुझे सि्ो |जिस शरदात मेंमैसेकद़ोंबार
वकीक्ञ की हैसियत से खड़ा रहता था, चक्रीज्ञों केसाथ बैठता
था, वहींपर आज़ मेंमुलज़िम के पीजड़े मेंखड़ा हूँ.यह विचार
बंद विचित्र जरूर मालूम हुआ, पर यह तो मुझे अच्छी
तरह याद है कि वकीलों केसाथ बैठने मेंमैंअपना १३३० समता था उसकी अपेत्ता कहीं अधिक सस्मान आज़ मैंनेउस
पीजड़े मेंखडा रहने ही में साना। मुझे याद नहीं आता कि उसमें पेर
रखते हुए भरे दिल्ल में जरा भी
ज्ोम हुआ हो। अदालत में तो सेकढ़ों हिन्दुस्तानी भाईवकीक्ष-मित ्र चर के
सामने मैंखड़ा था। परन्तु सजा के सुनाते ही फौरन कैदियों को जिस दरवाजे सेबाहर ले जाते है,उससे लेजञाने के पहले जहाँ रजखा जाता हैचहाँ एक सिपाही मुके ले गया। उस समय मैंनेदेखा कि आस-पास सन्नादा-सा छा गया है। कषेदियों के बैठने के लिए बहों एक बेंच पढ़ी थी उसपर बैठने के
लिए मुझे कहकर पुलिस अधिकारी दरवाज़ा बन्द करके चत्ा गया।
यह मेरे दिल मेंजरूर च्ोभ पैदा हुआ ।मैंगहरे विचार सार मेंगोते रगाने लगा। घरवार कहोँ है? बकात्त कर्शो गयो! और कहांहैंवे सभायें !क्या यह सब खप्त थाऔर आज में
केदी हो गया हूँ?इन हो
ं मे क्या होगा | क्या पूरेदो महीने काटने दोंगे !यदि जोगमहीनोचरावर एक-क्ेन्राद एक झाते रहेंदब वो दो महीने यहाँ रहना ही न पड़े| पर यदि न आयें
दो मह्दीने कैसे करेंगे !यह लिखते
मुक्े जितना समय क्ग रहा हैउसके शहाँश से भीकम हुए समय में येऔर ऐसे दिल्ने हो विचार मेरे दिल में आ गये | पर झाते ही में शरभाय।। “अरे, यह कैसा मिध्यामिमान !मेंउनके टो जेल को महल , पता रहा था; 'खूती कानून का सामना करते हुए जो इुछ्च