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इतिहास
 

मुश्किल हो जाय। फल यह हुआ कि खानों के अन्दर काम करनेवाले हज़ारों हवशियों को दूसरे रोगो के साथ एक तरह का क्षय रोग भी हो जाता है जिसे 'माइएड्स थाइसिस' कहते हैं। यह रोग प्राणहारक है। उसके चंगुल में फँसे बाद शायद ही कोई बच सकता है। ऐसे हजारो लोग जब एक खान के अन्दर रहते हैं और साथ में उनके बाल-बच्चे न हों तो पाठक सहज ही कल्पना कर सकते हैं कि वे संयम का पालन कहाँतक कर सकते होंगे? उसके फल स्वरूप पैदा होनेवाले रोगों के भी शिकार वे लोग हो जाते हैं। दक्षिण अफ्रीका के विचारशील गोरे भी इम प्रश्न का विचार न करते हों सो बात नही। कितने ही गोरे जरूर मानते हैं कि इन सुधारों का असर सामूहिक रूप से इन लोगों पर अच्छा ही हुआ है, यह दावा शायद ही किया जा सके। इसका बुरा असर तो किसी भी शख्स को दिखायी दे सकता है।

इस महान देश में जहाँ ऐसी भोली-भाली जाति बसती थी, कोई चार सौ साल पहले बलन्दा लोगों ने अपना पड़ाव डाला। चे गुलाम तो रखते ही थे। अपने जावा-राज्य से कितने ही चदा अपने मलायी गुलामो को लेकर उस प्रान्त में आये जिसे हम आज केप कालोनी के नाम से जानते हैं। ये मतायी लोग मुसलमान हैं। उनमें वलंदा लोगों का खून है और उसीके अनु सार कितने ही गुण भी हैं। वे सारे दक्षिण अफ्रीका में इक्के-दुक्के फैले हुए नजर आते हैं। परन्तु उनका मुख्य स्थान केपटाउन म है। आज उनमें कितने ही लोग गोरों की नौकरी करते हैं और दूसरे अपना निजी पेशा करते हैं। मलायी स्त्रियाँ बहुत उद्योग और होशियार होती हैं। उनको रहन-सहन बहुत कुछ साफ-सुथरी दिखायी देती है। औरतें सीना-पिरोना और कपड़े धोना बहुत अच्छा जानती हैं। मर्द कुछ छोटा-बड़ा रोजगार करते