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दक्षिण अफ्रिका का सपयाप्रह

कर सउते थे १उद्वोने मेरी चालाफ़ी श्रयव्रा (0ध77॥78709) कै

अनुभव फी वात कह तो डाली, पर दे इसके प्रमाण में एक भी

उदाहरण पेश नहीं कर सके थे । मेंखुद भी तो जानता हूँ कि

इतने साल दक्षिण श्रफ्रिका में रहा. पर मुझे स्मरण नहीं होता कि

मैंने वहाँ कभी चाल्ञाकी से दाम लिया हो। बल्कि इस पतेग पर

तो मुझे शरीर मी आगे बढ कर यहाँ तक कहने मे भी फोई द्िचकिचाहट्‌ नहीं साछूम होती कि अपने सारे जीवन में मैंने कभी चालाफी से काम नहीं लिया। में इसे'नीति-विरुद्ध दी नह वृहिक युक्ति-विरुद्र भी मानता हूँ। इमलिए व्यव्नासुद्धि सेभो मैंने उसका उपयोग करना कभी पसन्द नहीं किया । अपने वचाय के लिए मैइतना लिखना भी आवश्यक नहीं मानता। जिन पाठग

के लिए मैं यह लिख रहा हूँ, उनके सामने मुझे यह पंच अपने ही मुँहसेकरते हुए क्तज्ञा मालूम होती है। यदि उन्हें ४

-तक मेरे निशछुल और निष्कपट खमाव का अनुभव न हुआ है)

तो मैंयह बात अपना बचात्र देकर कमी सिद्ध नहीं कर सकता । उपयुक्तवाक्यतो मैंनेकेवल इस द्वेतु सेलिखे कि पाठकों को ६

- बात की थोड़ी बहुत कल्पना हो जाय कि सत्याग्रह के युद्ध मेंलब्ते

समय केसे-कैसे सकटों का धासना करना पढ़ता था। साथ हीपाठक

इस बात को भी सममजे कि सुनीति के निर्दिष्ट मार्ग से यदि फोम जरा भी विचलित हो जाती तो किस खतरे मे चह जा गिरती।

बीसफोट ऊँची लकड़ी परलटकाई हुईरस्सी पर घलने वाले नों को कितनी एकाप्रता फरनी पढ़ती है !उनकी नजर जरा भी घूकी कि दोनों तरफ,जिस तरफ चे मिरें उसे तरफ मौत उनका खागत

फरने लिए तैयार रहती है। मैंने भी झाठ, साल के विशाल

अनुभव से यही सीखा कि ठीक नट की तरह, बल्कि उससे भी अधिक एकाप्र नजर करके सत्याम्रही को भी संसार मे ,बरतना