सोराबजी शापुरजी भ्रडाजनिया ३५ पारसियों के विषय मेंदक्तिण अफ्रिका मे भी मेरा वही सत था
जो मैंने भारतवर्ष में प्रकट किया है | संसार भर में एक लाख से ब्यादा पारसी नहीं होंगे। परन्तु इतनी छोटो सी ज्ञाति अपनी
प्रतिष्ठा की रक्षा कर रद्दी है,अपने धर्म पर दृढ़ है,और उदारता
में संसार कीएक भी जाति उसकी बराबरी नहीं कर सकती । इस जात्ति की उच्चता के लिए इतना ही प्रमाण काफी होगा |
अनुभव सेज्ञात हुआ कि सोराबजी उसमे भी रत्त थे। जब वह लड़ाई मे शामिल हुए, तब मैं उनको वैसे द्वोमामूली तौर पर जानता था । लड़ाई भे शामिल्ल होने के लिए उन्होंने पत्र-व्यवहार
किया था, और उससे मेरा खयाल भी अच्छा हो गया था। में
पोरसी लोगों के गुणों का तोपुजारी हूँ,परन्तु एक्र कौम की हैसियत से उनमें जो खामियों हैंउनसे में नतो अ्रपरिचित था और न अब ही हूँ।इसलिए मेरे दिल मेंयह सन्देदद जरूर मौजूद था कि शायद् सोराबजी परीक्षा मे उत्तीर्ण नहीं हो सकेगे। पर मेरा यह नियम था कि सामनेवाल्ा मनुष्य जब इसके विपरीत वात कर रहा हो,तब
ऐसे शक पर अधिक ध्यान नहीं देना चाहिए। इसलिए मेनेकमिटी से यद् सिफारिश की कि सोराबजी अपने पत्र में जो हृदता जाहिर कर रहेहैंउसपर हमे विश्वास कर लेना चादिए। फल यह हुआ
कि सोराबजी प्रथम भ्रेणी के सत्याप्रही साबित हुए। लम्बी से लस्त्री केद भोगने वाले सत्याप्रहियों में वह भी एक थे । इतना ह्वीनहीं, बल्कि उन्होने तो सत्याग्रह का इतना गदरा अध्ययन कर त़िया था कि उसके विषय में वह नो कुछ भी कहते सबको सुनना पढ़ता | उसकी सलाह में दसेशा रढृता, त्रिवेक, उदारता, शान्ति आदि गुण प्रकट होते । विचार कायम करने में चह जल्दी तो कदाएँ नहीं
करते थे। और एक बार विचार कायम कर लेने पर वहकभी उसे
बदलते भी नहीं थे। जितने अंशों मेंउनमें पारसीपन था, और चह