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दक्षिण अफ्रिफा का सत्यामह

उसमें टूस-दूंमेकर भरा हुआ था, उतना ही भारतीयपत भी था। संकीण जाति-अभिमान जैंमी बल्तु तो उनमे किसी दिन भी नहीं पाई गई । लडाई खतम होने पर डा० मेहता ने अन्छे सत्यामहियों

मेंसे किसीफो इग्लेण्ड भेजकर मैरिस्टर चनाने के लिए एक छोर

वृत्ति दी थी। उमके लिए योग्य छात्र चुनने का काम मुझ पर ही कब गया था | दो तीन सुय्रोग्य भारतोय थे। पर समस्त

मित्र मंडल फो हृढता तथा स्थिरता में सोराबज्ञी के सुकावल्े में

खडा होने योग्य कोई नहीं मिला, इसलिए रन्हींको चुना गया। ऐसे एक भारतीय फो इंग्लेण्ड भेजने में मुख्य स्द्देश यही था कि चद्द लौट फर दक्षिण अफ्रिका में मेरे वाद सेरा स्थान प्रहण कर जाति की सेवा कर सके । फौम का श्राशोरबादि और सन्मान लेकर

सोराबजी इंग्लैण्ड पहुचे । बैरिस्टर हुए ।गोखत्ते सेतोउनका परिः

चय दक्षिण अफ़िका मे ही हो चुफा था। पर इंस्लैण्ड जाने पा उनका सम्बन्ध ओर भी दृह हो गया । सोराजवी ने उनके हर लिया ।गोखत्ते नेउनसे यह आग्रह भी किया कि जब कभी व भारत में आधे तथ 'भारत-सेत्रऊ-समिति! के सभ्य जरूर होव

विद्यार्थीयर्य मे वह बढ़ेप्रिय होगयेये।प्रत्येक मनुष्य के दुख मेंवा भाग जषेते। इंग्लेग् केन तो झराउम्थर की उनपर किंचिन्मात्र शा

पढ़ी और नवहों केऐशो-आरामकी|वह जब इंग्लैणड गये तव उनः

उम्र ३० सात्ञ से ऊपर थी। उनका अग्रेनीका अ्रध्ययन ऊँचे दर फा न था। व्याकरण वगैरा सब भूल भाल्त गये थे। पर मलुष्य

दीर्घोद्योग के सामने ये कठिनाइयों कब खड़ी रह सकी हैं

शुद्ध विद्यार्थी जीवन व्यतीत कर, सोराबजो परीक्षाश्रों में उत्तीर

होते गये। मेरे जमानेकीवैरिस्टरी की परीक्षा आजकल की परीर

' की तुजना में कुछ आसान थी |इसलिए आजकल के वेरिस्टरों व

अधिक अभ्यास करना पढ़ता है। पर सोराघजी पीछे नहीं दे