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३५.

भारतीयों काआगमन

गोरों की वात कोसीकार किया। और सन्‌ १८४०-४० के लगभग पदला जद्दाज भारतीय मजदूरों को लेकर निकला। मेरा खयात़ हैकि भारतीय सरकार ने इस माँग को स्वीकार करते समय अधिक गदराइ के साथ विचार नहीं किया । यहाँ

के अंग्रेज अधिकारी जाने-वेजाने अपने नेटाल-निवासी भाइयों की तरफ झुके। हों, जदहाँतक हो सका मजदूरों की रक्षा की

शर्तें उनके इकरारनामे मे दुज करके उनके खान-पान की व्यवस्था की चिन्ता भी प्रकट की ।पर इस बात का किसी को भी पूरा

ख्याल न रद्दा कि इस प्रकार इतनी दूर जानेबाले अनपढ़ मजदूरी पर यदि कोई मुसीबत आ पड़े तो वेकिस तरह अपने को सुक्त कर सकते हैं। उनके घर्स का क्‍या हाल द्वोगा ?वे अपनी नीति

की रक्षा कैसे करेंगे ?इसका तो किसी ने विचार भी नहीं किया।

अधिकारियों ने यह भी नहीं सोचा कि यद्यपि कानून में गुलामी की प्रथा उठ चुकी थी किन्तु वहाँ के मात़तिकों के हृदय से दूसरों

को शुलाम वनाने का लोभ सिट न पाया था। अधिकारियों को यह सममना चाहिए था कि बेचारे मजदूर इतनी दूर जाकर

एक बड़े समय के लिए गुलाम बचेंगे। पर यह वात भी उनके ध्यान मेंनहीं आयी | सर विलियम विल्सन हंंटर ने, जिन्होंने इस स्थिति का गहरा अध्ययन किया था, इसकी तुलना करते

हुए दो शब्दों अथवा शब्द-समूह का उपयोग किया था । नेटाल के ही भारतीय मजदूरों के विषय में लिखते समय उन्होंने एक

समय लिखा था कि यह तो आधी गुल्लामी' है। दूसरे वक्त अपने पत्र मेंलिखते समय उन्होने इस स्थिति कोलगभग गुलाम की

दी स्थिति बताकर उसका वर्णन किया था । यही वात वहाँ के एक बढ़ें-पे-बड़े गोरे निवासी, स्वर्गीय श्रीयुत एस्कंब ने लेटल के एक

शिष्ट-मण्डल्ष के सामने गवाही देतेहुए छुचूल की थी |यों तो इस