दब्िय अफ्रीका का सत्पांग्रए
के
फदे जाने गे । उन्हें. हम 'गिरमिट-्मुक्त अथया संचेप में श्ुक्त भारतीय! कहेंगे। यह भेद मम्क लेना जमरी £,
क्योंकि लो हफ ऊपर यदाये खतन्त्र भारतीयों को ये, थेइन्ट (मुक्त भारतीयों को ) न थे। जैमे यदि उन्हें एक्क गाँतर से
दूसरे गाँव जाना हो तो उसके लिए उन्हें लाइमेन्म (परवाना ) लेना ज़रूरी था।यदि वे विवाद करना चाहे और यह इन्द्र दो कि चह कानूत के द्वारा मजूर फिया जाय तो ऐसा कराने
के लिए उन्हें गिरिमिटियों डी रक्षा केलिए नियत अधिकारी के दफ्तर में उसे दर्ज करा देता चाहिए, आादि। इसके अतिरिक्त और भी कितनी ही कठोर धाराओं का 'पंकुश उनपर था |
ट्रान्सवाल और फ्री स्टेट में १८८०-६० में बोघर लोगों के प्रजातन्त्र राज्य थे । प्रजञातन्त्र राज्य का अर्थ भी यहाँस्पष्ट कर देना जरूरी है। प्रजातन्त्र यानी गोरासताक। 4समें हवशी लोगों केलिए कहीं स्थान न था । भारतीय व्यापारियों ने देखा
कि इस क्रेवल गिरिमिदियों और मुक्त मारतीयों के साथ ही
नहीं बल्कि दचशियों केसाथ भी व्यापार कर सकते हैं। इबशियों के लिए भारतोय व्यापारी तो बढ़े काम की चीज
साबित हुए। गोरे व्यापारियों से वेबहुत ढरते थे। गोरे
व्यापारी उनके साथ व्यापार करना चाहते तो जरूर थे) पर हवशी ग्राहक कभी यह आशा नहीं रख सकता या कि
गोरा उन्हें मीठो जवान से पुकारेगा। अगर गोरा व्यापारी उसे पैसे का पूरा सा देता, तो वह अपना अद्दोभाग्य समझता कभी-क्ी तो यहाँ तक फडुआ अनुभव हुआ है कि
उसे चार शिक्षिंग को कोई चीज खरीदनी हो और यदि बह डुफानदार के सामने एक पाठरडरख दे तोउसे १६ शिक्षिंग के बदले चार शिलिंग वापिस सिलता, अथवा कुछ भी न