दर्चिण श्र्तीका का सत्याग्रह ख सैंठे हों! म्रिटिश गजदूत को भारतीय नेताओं की प्रेरणा से इस
कानून के खिलाफ खड़। होना पढ़ा ।मामला राज्यों फे प्रधान
अन््त्री तक पहुँचा । कानून का आशय था कि प्रत्येक भागन्तुक
भारतीय से २४ पींड प्रवेश कर लिया जाय। उसे एक इश् मर
जमीन भी ट्रान्सवाल में न ठो जाय, न वह धारासभा को मत
दाता हो सकता हैं। यह कानून इतना अनुचित था कि ह्रात्स-
वाल सरकार को इसके समन के लिए कोई दलीलें सोचे नहीं सूमती थी |ट्रान्सवाल सरकार और बडी सरकार के वीच शक मुलद्दनामा था, ज्िंसका नाम था “लन्दन कन्वेन्शन” उसमे अप्रेजी प्रजा के सत्वों कीरक्तात्मक एक धारा भी थी। इम
धारा के अनुसार बड़ी सरकार ने उस अन्याव-पूर्ण-विधान का
बिरोध किया । द्रास्सवाल सरकार ने कद्दा किउस विघान की
रचना मेंखय बढ़ी सरकार की ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यत्त रूप से सम्मति मित्र चुकी थी ।
इस प्रकार दोनों मेंमतमेद होने केकारण मामत्ञा पत्रों के
पास गया। पर पर्चो का फैसला भी पणु रद्या। उसने दोनो पक्षों को प्रसन्न करने की कोशिश की | परिणाम यह हुआ कि इस चार भी भारतीयों की दाति हुई । ज्यादा नहीं, कम हानि हुई ।
च्रों के फेसले के अलुसार १८८७ में कानून से संशोधन हुआ।
रियाअत इतनी सित्ती कि२५ पौरठ के बदले आयन्तुक भार-
तीयों पर प्रवेश-कर ३ पौं रक्खा जाय। 'इस्बमर जमीन भी न
दी जाय' इसके वदले यह तय हुआ कि ट्रान्सबाज्ञ कीसरकार
जहाँ बताबे वहाँ उन्हें जमीनें भी मित्न सकती हैं। इस धारा फो
व्यवद्दार में लाने से मरी ट्रान्सवाल सरकार ने जी चुराया। उसने ऐसे जस्खरोद जमीन लेने के हक; तो दिये ही नहीं। उन्दोने उत्त शहरों में जहाँ भारतीयों की बस्ती थी, उन्हें शहर