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पिछुली, मुसीव्रतोंपर" एक नज़ेर
से बहुत दूर ऐसी जगह लमीनें दीं जोगंदी से गदी थीं। पानी
और प्रकाश का प्रबन्ध भी बिल्कुल खराब, टट्टियाँ साफ ;करने का इन्तज्ञाम भी वेसा हीखराब था। 'अथांत् हम ट्रान्सवाज् की “पंचम” जाति बन गये | इसी से यह कहा जा सकता
कि भारत के अंत्यजों के मुहल्ले और ट्रान्सवाल के भारतीयनिवासों मेंकोईअन्तर नहीं है। वहाँ की” स्थिति यहाँ तक बढ़ गयी हैकिजेसे यहाँपरउच्च हिन्दू अस्पृश्य जाति के मनुष्य के स्पश से अपने को अपवित्र समझते हैं ठीक उसी प्रकार यहाँ के गोरे भी भारतीयों के स्पशे फो मानते हैं। फिर ट्राल्सवाल की सरकार ने इस १८८७ के कानून का यह अथ
किया ? मारतीय व्यापारी व्यापार भीअपने इन्हीं मुहल्लों में
कर सकते हैं। ट्रान्सवाल सरकार का ऊपर बताया अथ ठीक है या नहीं, इस बात पर फेसला देने का अधिकार पंचों ने बहीं के अदालत के अधीन रक्खा । इससे भारतीय व्यापारियों की
हालत और भी नाजुक हो गयी। इतने पर भी उन्होंने सलाह
मशवरा किया । कहदी-कद्दी मुकदमे भी चलाये |सिफारिश आदि के द्वारा भी भारतीय व्यापारियों नेअपनी परिस्थिति की रक्ा
की |बोअर-युद्ध केआरम्भ तक ट्रान्सवाल-निवासी भारतीयों
की ऐसी दुःखद और अनिश्चित अवस्था थी। अब हम प्री-स्टेट को देखें। वहाँ तो दूस-पन्द्रह दुकानें भी नहींहोपायी थीं किवहाँ गोरों नेजमीन-आसमान एक कर
दिया । वहाँ की घारासभा ने दक्षता सेकाम लिया और मेंदान साफ ही कर ठाला। एक सख्त कानून बनाया, भारतीयों की नुकसाती का न कुछ बदला दिया, और सारतीय व्यापारियों को फ्री-स्टेट सेनिकाल कर दिया | कानून का आशय था कि व्यापारी
अथवा किसान की देसियत से भी भारतीय वहाँ का स्थाग्री