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) भारत॑योंनेक्या किया, !
लिए रवाना हुआ । मुके वहों के ,इतिहास का जरा भी ज्ञात न था। मैंतो केवल स्वार्थ-भाव से गया था। पोरबंदर के मेमनों की दादा अबदुल्ला केनाम की एक प्रख्यात दूकान डबन मेंथी |
उतनी ही प्रख्यात एक दूसरी दुकान उनके प्रतिस्पर्धा और पोर-
बंदर के मेमन तेयव हाजी खान महम्मद् की प्रिटोरिया मेंथी ।
दुर्भाग्यचश इन दो प्रतिस्पर्धियों केबींच एक मामज्ञा चल रहा
था |इस समय दादा अबच्छुल्ला केएक सामी ने, जो पोरबंदर से
“थे, सोचा कि मेरे जेसा यदि एक नौसिखिया ही सही किंतु बेरिस्टर वहाँ जाय तो उसे बहुत फायदा हो । उन्हें यह भय न था कि एक अनजान और मूढ़ वक्री कीतरह में उनके मामले को बिगाड़ डाढूँगाक्योकि मुमे अदालत में जाकर काम नहीं करना था ।
मुझे तो उनके नियुक्त किये बढ़े बढ़े वकील बेरिस्टरों कोसममाने
का अर्थात् हुमाषिये का काम करने के लिए रक्खा था। मुमे नवीन अनुभवों का बढ़ा शोक था। सफर का भी -शौक था। चेरिस्टर होने परभीकमीशन देना तो वहाँ सुमे घिष के समान
्ञगता था । काठियावाड़ की बन्दिशों से मेरा चित्त दुखी
“रहता था । मुमे एक ही सात्ञ के लिए जाना। मैंने सोचा उसमें मेरी जरा भीअ्रसुविधा नहीं। हानि तो तिज्॒भर -भी न थी। “क्योंकि मेरे जाने आने का और वहाँ रहने का खच तो दादा
अबदुल्ला देने वाले थे और इसके अतिरिक्त १०४ पौड भी । मेरे
स्वर्गीय आता के द्वार सब बातें हुईंथी। मेरे लिये वो वे पिता
के स्थान पर दी थे। उनकी अनुकूलता मेरी अनुकृज्ता थी। दक्षिण अफ्रीका जाने कीबात उन्हे बहुत पसन्द हुई, और सें
2८६३ के,मई मेंडबन जा पहुँचा | मैंतो वेरिस्टर ठहरा। फिर क्या पूछना था! जैसा कि मैने सोच रक््खा फ्राक कोट आदि बढ़िया कपड़े डाटकर बढ़े