पृष्ठ:दक्षिण अफ्रीका का सत्याग्रह Satyagraha in South Africa.pdf/६९

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सानापमान का भी विचार करता ये दोनों बातें, साथ-साथ नह

हो,सफती । अथात्‌ घत के साथन्साथ अपमान भी हो, तो वह

उनके लिए एक संग्रहणीय पस्तु थी। उन्होंने गुकेयहभी

कह्दा किइप्ती स्टेशनपरभारतीयों केमुख्य दरवाजे से आन की सुमानियत है और उन्हेंटिकट बगेरा लेते समम भी खूब तकलीफ द्वोती है। उसी रोज रात की गाड़ी से मेंरवाना हुआ!

मैंअपने निश्चय का पक्चा हूँ.या कछ्ा इस बात की परमात्मा ने भी पूरीपरीक्षा की। प्रिटोरिया पहुँचने तक भुझे! और भी कई धार अपमान सहना पढ़ा और पिटनाभीपढ़ा।, पर उन सबका

मेरेदिल पर ऐसा ही असर हुआ जिससे मेरा निश्चय और भी 'इढ़ होता गया । कि इस प्रकार सब्‌ १८६३ में दक्तिण अफ्रीका के भा

कीस्थितिकापूरा-यूरा अनुभव मुक्केअनायासहीहो गया। समय पाकर मैंप्रिदोरिया के भारदीयों से उस विषय में वात-

चीत करता, उन्हेंसमझता । पर इससे ज्यादा मैंने कुछ नहीं

किया। मैंनेदेखा कि दादा अब्दुल्ला के सामते को च्षाना और साथ ही भारतीयों के दुनों के निवारण की चिंता करना

ये दो-दो वार्तें एक साथ नहीं होसकती, क्योंकि दोनों को करने जाऊँगा तो दो भें सेएक काम -भी अच्छा न द्वोगा।

इस तरह विचार करते-करते (८६४ सात त्गा। मामला सी

खत्म हो गया। मैं ढबेंच दापिस लौद। भारत लौटने के लिए रियाँ की। दादाअब्दुल्लानेमेरी रुखसतके उपल्क्त मे

इक सभानिमन्न्रित की। वहाँ किसी ने- डवेन का 'मर्री' नामक अखबार परे हाथों में लाकर रख दिया। उसमें घारा-सभा कोगीकारवाई को रिपोर्ट में भारदीयों भारद

ीयों को मताधिकार (इरिडियन मेचाइज)' झादि शोर्षको के नीचे मैंने कद सर पह |