पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१०

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कि रैदास इस चर्म-कर्म में भी निपुण न थे। संभवतः उनको अपनी रुचि के विरुद्ध उनके पिता ने इस कर्म में लगा दिया होगा। ऐसा विश्वास किया जाता है कि रैदास की प्रतिकूल रुचि और विरक्ति को देखकर उनके पिता ने बाद में उन्हें इस धंधे से अलग कर दिया। अब वे अपने पैतृक मकान के पीछे झोंपड़ी में ही निवास करने लगे।

अनंतदास लिखते हैं:-

बड़ो भयौ तब न्यारौ कीनौ, बांटे आवे सो बांटि न दीनों।
राध्या बावरी के पिछवारे, कछु न कहयौ रैदास विचारे।
सीधो चाम मोलि लै आवै, ताकी पनही अधिक बनावे।
टूटे फाटे जरवा जोरे मसकत करि काहु न निहारै।

संत रविदास ने कुछ पदों में "उन दुखों का भी चित्र किया है, जो उन्हें अक्सर चमार होने के कारण सहन करने पड़ते थे। यथा-

हम अपराधी नीच घर जनमें।
कुटुम्ब लोक करे हांसी रे॥
जहां जाऊं तहां दुख की रासी।
जो न पतियाइ साधु हैं साखी॥
दारिद देखि सब कोई हांसे ऐसी दशा हमारी।
अष्टादस सिद्धि कर तले सब किरपा तुम्हारी॥

इन उद्धरणों से यह भी स्पष्ट होता है कि रैदास जी दरिद्र थे और उनकी दरिद्रता पर भी हंसते थे ।

रविदास-सम्प्रदाय के पक्षधर मानते हैं कि रविदास का निर्वाण चैत्र मास की चतुर्दशी को हुआ था। कुछ विद्वानों का विचार है कि उनकी मृत्यु सं. 1597 में हुई थी। यह तिथि 'भगवान रैदास की सत्यकथा' ग्रंथ में दी गई है। 'मीरा स्मृति ग्रंथ' में रैदास का निर्वाण-काल सं. 1576 दिया गया है। यह भी विश्वास किया जाता है कि उन्हें 130 वर्ष की दीर्घायु मिली थी।

अनन्तदास ने लिखा :

पन्द्रह सौ चउ असी, भई चितौर महं भीर।
जर-जर देह कंचन भई, रवि-रवि मिल्यौ सरीर॥

इससे स्पष्ट है कि संवत 1584 में रैदास ने चितौड़ में देह त्याग किया था। आधुनिक शोध पर आधारित यह मत अधिक विश्वसनीय लगता है।

संत रविदास जीवन परिचय/13