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रचनाएं

"संत रविदास ने कितनी रचनाएं की हैं, उनके कितने ग्रंथ हैं, यह ठीक से ज्ञात नहीं है। कबीर की भांति वे भी पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने अपनी रचनाएं स्वयं लिपिबद्ध नहीं की। अधिकांशतः वे मौखिक रूप में ही प्रचलित रहीं। बाद में उनके पंथ के लोगों ने उनकी रचनाओं को लिपिबद्ध किया है। स्वयं रविदास द्वारा लिखित एक ही हस्तलिखित ग्रंथ प्राप्य नहीं है और न कोई ऐसा प्रामाणिक उल्लेख ही मिलता है जिसमें उनके द्वारा रचित पदों, साखियों एवं ग्रंथों की संख्या का उल्लेख हो।

संत रविदास की रचनाओं की जो प्रतिलिपियां प्राप्य हैं, उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। प्रतिलिपियों में अनेक अशुद्धियां और पाठांतर हैं।"" नागरी प्रचारिणी सभा, काशी में संग्रहित विभिन्न गुटकों में, 'दादूपंथ' के धर्म-ग्रन्थ 'सर्वांगी' और 'पंचवानी' में, 'गुरु-ग्रन्थ- साहब' में भी संत रविदास के पद व साखियां संग्रहित हैं ।

जनश्रुतियां एवं किंवदंतियां

भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के महापुरुषों के जीवन से संबंधित चमत्कारिक घटनाएं समाज में प्रचलित हैं। जनश्रुतियों एवं किंवदंतियों के माध्यम से लोग अपने आदर्श पुरुष, महापुरुष एवं नायक के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं या अप्रिय के प्रति घृणा अथवा निन्दा व्यक्त करते हैं। अपने नायक को किसी दूसरे नायक से अव्वल सिद्ध करने के लिए भी किंवदंतियों का निर्माण किया जाता है। इसीलिए महापुरुषों की विराटता को प्रदर्शित करने वाली जनश्रुतियों की प्रकृति भी एक जैसी हो जाती है। बहादुरी, त्याग, दयाशीलता, न्यायप्रियता, परोपकार आदि गुणों व अपने अनुयायियों की रक्षा व उत्थान करने वाले कार्य लगभग प्रत्येक महापुरुष से जुड़े हैं। किंवदंतियों की रचना व प्रसार निरुददेश्य नहीं होता, बल्कि किसी विचार, मान्यता या मूल्य को लोगों में स्थापित करने के लिए होता है। किंवदंतियां चुपचाप अपना प्रभाव छोड़ती रहती हैं और एक समय के बाद सामान्य चेतना (कामन सेंस) का अविभाज्य हिस्सा बनकर समाज की चेतना को स्वतः ही प्रभावित करती रहती हैं।

किंवदंतियों-जनश्रुतियों की प्रकृति बहुत ही लचीली होती है। वर्गों में विभक्त समाज में ये वर्चस्वी वर्ग के संस्कारों- विचारों के संवाहक का काम करने लगती हैं। इसलिए वर्गीय जरूरतों के साथ-साथ ये किंवदंतियां भी बदलती रहती हैं, इनमें जोड़-घटाव होता रहता है। कई बार तो किसी व्यक्ति के बारे में ऐसी

 
14/दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास