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चौदह से तैंतीस की माघ सुदी पंदरास।
दुखियों के कल्याण हित प्रगटे स्त्री रविदास॥३

संत रविदास का जन्म बनारस छावनी के पश्चिम की ओर दो मील दूरी पर स्थित मांडूर गांव में हुआ, जिसका पुराना नाम मंडुवाडीह है। 'रैदास रामायण के अनुसार

काशी ढिग मांडूर स्थाना, शूद्र वरण करत गुजराना।
मांडूर नगर लीन अवतारा, रविदास शुभ नाम हमारा॥

रविदास के पिता का नाम राघव अथवा रघू तथा उनकी माता का नाम करमा देवी तथा पत्नी का नाम लोना था।

"रैदास के गुरु के विषय में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता है। कुछ विद्वान उनको भी कबीर के समान रामानन्द जी का शिष्य मानते हैं। किंतु उसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। वे रामानन्द की शिष्य परम्परा में गिने जाते हैं क्योंकि वे भक्तों में जात-पांत का भेदभाव करने के विरोधी थे।"

उन्होंने अपनी वाणी में रामानन्द का न तो जिक्र किया और न ही कोई ऐसा संकेत दिया है कि वे उनके गुरु है।

रविदास ने अपनी वाणी में अपने पेशे व जाति के बारे में बार-बार लिखा है। वे मृत पशु ढोने का कार्य करते थे।

मेरी जाति कुट बाढ़ला ढोर ढुवंता,
नितहि बंनारसी आसपासा॥
***
जाति ओछी पाती ओछी, ओछा जनम हमारा।
***
कहि 'रविदास' खलास चमारा।
जो हम सहरी सो मीत हमारा॥

"मध्यकालीन भारतीय समाज की रचना का एक सबल आधार वर्ण-व्यवस्था थी। इस वर्ण-व्यवस्था के पीछे कर्म के आधार पर समाज संगठन का सिद्धांत विद्यमान था। अतएव व्यवसायों पर वर्णों या जातियों को जो एकाधिकार था, वह आनुवंशिक रूप में उत्तराधिकार भी बन जाता था। अस्तु, रैदास ने भी पैतृक व्यवसाय का उत्तराधिकार प्राप्त किया और अपनी किशोर वय में ही चर्म का व्यवसाय करने लगे। रैदास के पदों में इस व्यवसाय की साक्षी प्रचुर है- चमरटा गांठ न जनई, लोक गठावें पनहीं' (पद 31) इस उद्धरण से ज्ञात होता है

 
12/दलित मुक्ति की विरासत: संत रविदास