पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१००

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रविदास दास उदास तजु भ्रमु तपन तपु गुर गिआन । भगत जन भै हरन परमानंद करहु निदान ॥ 4 ॥ भृंग - भौरा कुंचर - हाथी । जा महि - जिस में । तृभद जोनि- तिर्यक - - - - योनि, पशु तथा कीड़े मकोड़े की योनि । पोच-नीच । कहु मन राम नाम संभारि । माया के भ्रम कहा भूल्यो, जाहुगे कर झारि ॥ टेक ॥ देखि धौं इहां कौन तेरो, सगा सुता नहिं नारि । तोरि उतंग सब दूरि करि हैं, देहिंगे तन जारि ॥ 1 ॥ प्रान गये कहो कौन तेरा, देखि सोच विचारी । बहुरि येहि कलिकाल माहीं, जीति भावै हारि ॥ 2 ॥ यहु माया सब थोथरी रे, भगति दिस प्रति हारि । कह रैदास सत बचन गुरु के, सो जिव ते न बिसारी ॥3॥ संभारि - स्मरण कर । कर झारि - हाथ झाड़ कर, खाली हाथ । धौं- तो, - भला। उतंग – संबंध। जारि देहिंगे- जला देंगे । बहुरि - फिर । भावै - चाहे, - अथवा | थोथरी – निस्सार, खोखली । दिस – दिशा में। भगति - सर्वस्व भक्ति की दिशा में लगा दे। जग में बेद बैद मानी जै । इनमें और अकथ कछु औरे, कहो कौन परिकीजै ॥ टेक ॥ भौजल ब्याधि असाधि प्रबल अति, परम पंथ न गहीजै ॥ 1 ॥ पढ़े-गुने कछु समुझि न परई, हारि - अपना - संत रविदास वाणी / 103