पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१०१

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अनुभव पद न लहीजै ॥ 2 ॥ चखबिहीन करतारि चलतु हैं, तिनहि न अस भुज दीजै ॥ 3 ॥ कह रैदास विवेक तत्त बिनु, सब मिलि नरक परीजै ॥ 4 ॥ बेद— यहां कर्मकांड से अभिप्राय है । बैद - वैद्य । अकथ - अनिर्वचनीय । - - परिकीजै – विश्वास करे। भौजल - भवसागर । वयाधि - रोग । असाधि- असाध्य । परम पंथ—सर्वोत्तम मार्ग | गहीजै— ग्रहण करे। पढ़े-गुने - केवल पढ़ने एवं रटने मात्र से। लहीजै - प्राप्त करे । चखबिहीन - अंधा । अस भुज - ऐसी भुजा, ऐसा आश्रय। परीजै—पड़ेंगे। ऐसी लाल तुझ बिनु काउनु करै । गरीब निवाजु गुसईआ मेरा माथै छत्र धेरै ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ जा की छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै । नीचहु ऊंच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै ॥1॥ नामदेव कबीरु त्रिलोचनु सधना सैन तरै । कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरि जीउ ते सभै सरै ॥ 2 ॥ गरीब निवाजु – दीनों पर दया करने वाला । छोति – छूत | ढरै - दया करते - हो । सुख सागरु सुततरु चिंतामनि कामधेनु बसि जा के । चारि पदारथ असट दसा सिधि नव निधि करतल ताके ॥1॥ हरि हरि हरि न जपहि रसना । अवर सभ तिआगी बचन रचना ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ 104 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास