पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१०३

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हरि जपत तेऊ जनां पदम कवलासपति तास समतलि नहीं आन कोऊ । एक ही एक अनेक होइ बिसथरिओ आन रे आन भरपूरि सोऊ ॥ रहाउ ॥ जाके भागवतु लेखीऐ अवरु नहीं पेखीऐ तास की जाति आछोप छीपा । बिआस महि लेखीऐ सनक महि पेखीऐ नाम की नामना सपत दीपा ॥॥॥ जाकै ईदि बकरीदि कुल गऊरे बधु करहि मानी अहि सेख सहीद पीरा । जाकै बाप वैसी करी पूत ऐसी सरी तिहूरे लोक परसिध कबीरा ॥ 2 ॥ जाकै कुटुंब के ढेढ सभ ढोर ढोवंत फिरहि अजहु बनारसी आस-पासा । आचार सहित विप्र करहि डंडउति तिन तनै रविदास दासान दासा ॥ 3 ॥ कवलासपति – कैलाशपति, भगवान शंकर । बिसथरिओ- विस्तृत हो गया, फैल गया। आछोप – अछूत | बिआस - व्यास ऋषि । सनक - एक ऋषि का - नाम। नामना – महिमा । सपतदीप - सप्त द्वीपों में, समस्त विश्व में । बकरीदि- - - - ईद । पूत ऐसी सरी – पुत्र ने ऐसी की । परसिद - प्रसिद्ध । ढेढ – ढेढ़ (चमार) जाति । डंडउति – नमस्कार । तुझहि सुझंता कछ नाहि । एहिरावा देखे ऊभि जाहि ॥ गरबलती का नाही ठाउ | तेरी गरदनि ऊपरि लवै काउ ॥ 1 ॥ तू काइं गरबहि बावली। 106 / दलित मुक्ति की विरासत : संत रविदास