पृष्ठ:दलित मुक्ति की विरासत संत रविदास.pdf/१०४

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जैसे भादउ खूंब राजु तू तिसते खरी उतावली ॥ ॥ ॥ रहाउ ॥ जैसे कुरंक नहीं पाइओ भेदू । तीन सुगंध ढूढे प्रदेसु ॥ अपतन का जो करे बीचारु । तिसू नहीं जम कंकरु करे खुआरु ॥ 2 ॥ पुत्र कलत्र का करहि अहंकारु । ठाकरु लेखा मंगनहारु ॥ फेड़े का दुखु सहै जीउ । पाछे किसहि पुकारहि पीउ पीउ ॥ 3 ॥ साधू की जउ लेहि ओट। तेरे मिटहिं पाप सभ कोटि कोटि ॥ कहै रविदासु जो जपै नामु । तिसु जाति न जनमु न जोनि कामु ॥ 4 ॥ सुझंता – सूझता । पहिरावा- वेष । ऊभि जाहि- गर्व करता है। गरबवती- – अहंकारी। गरदनि–कण्ठ, गले में पहनने का आभूषण । काउ – कोइ, ( मृत्यु - रूपी) कौआ। लवै—प्रेम करें, लक रहा है। काई - क्यों | खूंब - खुंभ, एक - पौधा। राजु — रहती है। तिसते- तृष्णा से । कुरंक - मृग । अपतन – अपना शरीर । - जम कंकरु – यमदूत । खुआरु - ज़लील, अपमानित । मंगनहारु - मांगने वाला। फेड़े का – फोकट का व्यर्थ ही, किये हुए कर्म का । ओट - शरण । - पड़ीए गुनीऐ नामु सभु सुनीऐ अनभऊ भाउ न दरसै । लोहा कंचनु हिरन होइ कैसे जउ पारसहि न परसै ॥ 1 ॥ देव संसै गांठ न छूटै । काम क्रोध माइआ मद मतसर इन पंचहू मिलि लूटै ॥ 1 ॥ रहाउ ॥ हम बड़ कबि कुलीन हम पंडित हम जोगी संनिआसी । गिआनी गुनी सूर हम दाते इह बुधि कबहि न नासी ॥ 2 ॥ कहू रविदास सभै नहीं समझसि भूलि परे जैसे बउरे । मोहि अधारु नामु नाराइन जीवन प्रान धन मोरे ॥ 3 ॥ - अनभउ भाउ - -आत्मानुभूति का भाव । कंचन हिरन - खरा सोना । परस- छुए, स्पर्श करें। मतसर - ईर्ष्या बउरे - बावला, पागल। संत रविदास वाणी / 107